राजनीति

राजनीति (6670)

अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर राम मंदिर कब बनेगा इसका जवाब भले राजनीतिक दलों खासकर भाजपा नेताओं के पास नहीं हो लेकिन अयोध्या वासियों को पूरा विश्वास है कि वर्ष 2019 में राम मंदिर के निर्माण का कार्य अवश्य शुरू होगा। ऐसा नहीं है कि यह विश्वास सिर्फ किसी खास समुदाय के लोगों को हो या किसी खास उम्र के लोगों को हो। अयोध्या चले जाइए और जिस-जिस से पूछते जाएंगे, जवाब यही आयेगा कि राम मंदिर का इंतजार अब पूरा होने वाला है और भव्य राम मंदिर बनने वाला है। चाहे संत हों या आम आदमी सब राजनीतिक चालों के साथ ही न्यायिक गतिविधियों पर बारीक नजर रखे हुए हैं और मान कर चल रहे हैं कि भाजपा नेताओं को जो संत समाज की ओर से चेतावनी दी गयी है उसका असर दिखने ही वाला है।
 
विश्वास का आधार क्या है?
 
राम मंदिर 2019 में ही बनना शुरू होगा, इस विश्वास का आधार यह है कि भाजपा को यह बात पूरी तरह समझ आ चुकी है कि राम मंदिर मुद्दे पर यदि लोकसभा चुनावों से पहले निर्णय नहीं लिया गया तो उसका वोट बैंक बुरी तरह छिटक सकता है। राम लला के दर्शन करने के लिए जब लाइन में लगे लोगों से बातचीत की गयी तो सभी का यह कहना था कि भाजपा को वोट करने हम जैसे भक्त लोग जाते हैं वो लोग नहीं जिनके तुष्टिकरण में पार्टी इन दिनों लगी हुई है। लोगों का साफ तौर पर कहना था कि भाजपा ने जो माँगा वो हमने दिया, 'केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार मांगी, हमने दिया, राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार मांगी हमने दिया लेकिन अब बारी भाजपा की है। यदि भाजपा ऐसी अनुकूल परिस्थितियों में जबकि केंद्र और उत्तर प्रदेश में उसकी पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों पर भी उसके ही लोग विराजमान हैं में भी कुछ नहीं कर सकती तो ऐसी पार्टी को सत्ता से बाहर होना चाहिए।' यही नहीं लोगों का यह भी कहना है कि कांग्रेस जोकि सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह पर चल रही है, वह भी राम मंदिर का विरोध करने की स्थिति में नहीं है इसलिए भाजपा को कदम आगे बढ़ाना ही चाहिए क्योंकि इतनी अनुकूल स्थितियां फिर बड़ी मुश्किल से होंगी।
 
संत समाज चेतावनी के साथ ताकत भी दे रहा है
संत समाज को भी लगता है कि अब वह समय आ गया है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाने वाले हैं। राजनीतिक तौर पर भले यह सरकार के लिए मुश्किल भरा कार्य हो लेकिन संतों से बात करें तो उन्हें इस बात का विश्वास है कि भाजपा इस मुद्दे पर काम कर रही है और जल्द ही तारीख की घोषणा होगी। संतों का एक वर्ग तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की शक्ति बढ़ाने के लिए विशेष पूजा-पाठ करने में भी लगा हुआ है। संत बातचीत में कहते हैं कि यदि 2019 में राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ तो यह मुद्दा फिर पीछे चला जायेगा क्योंकि यदि भाजपा की चुनावों में हार हो गयी तो कांग्रेस या अन्य दल अपने कार्यकाल में राम मंदिर पर बात भी नहीं करेंगे। 31 जनवरी को कुम्भ मेले के दौरान धर्म संसद का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें संत समाज यह तय करेगा कि राम मंदिर मुद्दे पर आगे क्या कदम उठाये जाएं।
 
न्यायालय पर हैं सभी की नजरें
 
सभी की नजरें 04 जनवरी, 2019 को राम मंदिर मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय में होने वाली सुनवाई पर लगी हुई हैं। अदालत सुनवाई के लिए सिर्फ पीठ का ही गठन करती है या नियमित आधार पर सुनवाई का आदेश भी देती है या फिर कोई और कदम उठाती है, इसको लेकर कयासों का दौर भी जारी है। वैसे अदालत से मामले का हल निकलेगा इसको लेकर लोगों के मन में संशय है। लोगों का कहना है कि बातचीत से भी मसले का हल निकलना मुश्किल है क्योंकि जब-जब बातचीत आगे बढ़ती है तब-तब कुछ लोग इसमें रोड़ा अटकाने सामने आ जाते हैं। इसलिए राम मंदिर के लिए कानून बनाना ही लोगों को आखिरी विकल्प लगता है। हालांकि संसद के शीतकालीन सत्र से लोगों को काफी उम्मीदें थीं लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। भाजपा के कुछ सदस्यों की ओर से भी राम मंदिर के लिए निजी विधेयक लाने की बात कही गयी थी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने सांसदों से मिल कर राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग की थी लेकिन इस पूरी कवायद से भी कुछ नहीं निकला। अब विश्व हिन्दू परिषद के नेता दावा कर रहे हैं कि इंतजार कीजिये मोदी और योगी के हाथों ही होगा राम मंदिर का निर्माण।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हो चुका है सक्रिय
 
हालांकि संघ परिवार के विभिन्न घटक राम मंदिर मुद्दे पर सरकार को खुलेआम चेतावनी दे रहे हैं लेकिन अंदर ही अंदर यह भी चाहते हैं कि यह सरकार सत्ता में बनी रहे। इसके लिए प्रयास भी शुरू हो गये हैं। पिछले माह गुजरात के राजकोट में हिन्दू संतों और धर्माचार्यों की एक बड़ी बैठक हुई जिसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी भी मौजूद थे। इसमें तय कर लिया गया है कि इस मुद्दे पर अदालत के रुख के बाद कैसे आगे बढ़ना है। यदि अदालत में फिर मामला टलता है तो भाजपा के पास राम मंदिर के लिए खुलकर सामने आने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। चाहे योगी आदित्यनाथ हों या राजनाथ सिंह, हाल के दिनों में देखने को मिला है कि भाजपा के बड़े नेताओं की सभा में जनता हंगामा करने लगी है और 'पहले मंदिर फिर सरकार' का नारा बुलंद करने लगी है। संभव है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी आने वाले दिनों में अपनी जनसभाओं में 'मोदी मोदी' के उद्घोष की जगह 'राम मंदिर' का नारा सुनने को मिले।
 
मंदिर के साथ मस्जिद संभव नहीं
 
राम मंदिर के साथ मस्जिद भी बनाने की बात जो लोग करते हैं वह यदि एक बार अयोध्या हो आयें तो ऐसी बातें करना बंद कर देंगे। यह सही है कि राम तो कण-कण में विराजमान हैं लेकिन सरयू के इस पार तो लगता है कि राम और हनुमान जी के सिवा कुछ है ही नहीं। श्रीरामजन्मभूमि पर यदि राम मंदिर के अलावा मस्जिद या कोई और धर्मस्थल बनाया गया तो यकीन मानिये हम राम मंदिर मुद्दा सुलझाएंगे नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ी समस्या छोड़ जाएंगे। साम्प्रदायिक सद्भाव रहना ही चाहिए लेकिन यदि राम मंदिर के साथ मस्जिद बनायी गयी तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल नहीं बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए समस्या बन जायेगी।
 

 

 
बहरहाल, अयोध्या में लोगों से बातचीत करके एक बात और साफ हो जाती है कि राजनीतिक दल भले कितनी चालें चलें लेकिन जनता बहुत समझदार है और राम मंदिर मुद्दे पर हर राजनीतिक दल के रुख, संसद और न्यायालय में इस मुद्दे पर होने वाली गतिविधियों के साथ ही संबंधित खबरों से पूरी तरह अवगत है। जनता को मूर्ख बनाना आसान नहीं है और भाजपा भी हाल के विधानसभा चुनावों में नोटा को मिले भारी मतों और सवर्णों की नाराजगी से पार्टी को हुए नुकसान को देखते हुए फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रही है। पार्टी अब समझ रही है कि मात्र राम नाम जपने से कुछ नहीं होगा, राम से किये गये वादे पूरे करने का समय आ गया है।
 
-नीरज कुमार दुबे

नई दिल्ली. करतारपुर कॉरिडोर को लेकर पाकिस्तान सरकार जल्द ही भारत के सामने एक प्रस्ताव भेजने की तैयारी में है। इसमें कॉरिडोर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए कुछ शर्तें रखी हैं। न्यूज एजेंसी ने पाक मीडिया के हवाले से बताया कि बगैर परमिट के किसी भी श्रद्धालु को प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी। पासपोर्ट भी जरूरी होगा और एक दिन में 500 श्रद्धालुओं को ही प्रवेश दिया जाएगा। भारत को तीन दिन पहले यात्रियों की जानकारी देना भी जरूरी होगा।
दोनों ही देश दे चुके हैं करतारपुर कॉरिडोर बनाने की सहमति
पाक की शर्त के मुताबिक, सभी श्रद्धालु 15 के ग्रुप में प्रवेश करेंगे। यह कॉरिडोर सुबह 8 बजे से शाम 5 बजे तक ही खुला रहेगा। जितने श्रद्धालु दर्शन करते जाएंगे, उसी क्रम में दोनों तरफ उनके नाम और यात्रा के अनुसार डाटाबेस तैयार किया जाएगा। इस दौरान श्रद्धालुओं के बीच कोई विवाद होता है तो उसे कूटनीतिक तरीके से सुलझाया जाएगा।
भारत और पाकिस्तान करतारपुर कॉरिडोर बनाने को मंजूरी दे चुके हैं। 26 नवंबर को भारत ने गुरदासपुर जिले के डेरा बाबा नानक स्थान से इंटरनेशनल बॉर्डर तक बनने वाले इस कॉरिडोर का शिलान्यास किया था। इसके दो दिन बाद पाक ने बॉर्डर से करतारपुर साहिब तक जाने वाले कॉरिडोर के दूसरे हिस्से की नींव रखी। पाक प्रधानमंत्री इमरान खान ने कॉरिडोर का शिलान्यास किया था।
भारत ने कॉरिडोर बनाने का पहले भी दिया था प्रस्ताव
भारत सरकार पहले भी कई बार पाक सरकार को इस कॉरिडोर को बनाने का प्रस्ताव दे चुकी है। लेकिन हाल ही में इमरान सरकार ने इस कॉरिडोर को बनाने पर सहमति जताई। यह गलियारा भारत के गुरदासपुर जिले के डेरा बाबा नानक स्थान से इंटरनेशनल बॉर्डर तक बनाया जाएगा।
भारत में इस कॉरिडोर का करीब दो किलोमीटर का हिस्सा और पाकिस्तान में करीब तीन किलोमीटर का हिस्सा होगा। इसके निर्माण में करीब 16 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। चार महीने में इसे बनाने का लक्ष्य रखा गया है।
गुरुनानक देवजी ने बिताए थे 18 साल
गुरुनानक देवजी ने करतारपुर साहब में अपने जीवन के 18 साल बिताए थे। यह भारत की सीमा से कुछ किलोमीटर अंदर पाकिस्तान की सीमा पर है। इस कॉरिडोर के बन जाने से लाखों सिख तीर्थयात्रियों को पवित्र स्थान पर जाने में मदद मिलेगी। फिलहाल, अभी यहां पर भारत की सीमा पर खड़े होकर दूरबीन की मदद से गुरुद्वारा के दर्शन की सुविधा है।

13 कैबिनेट और 10 राज्यमंत्रियों ने शपथ ली, 18 विधायक पहली बार मंत्री बने
मंत्रिमंडल में सिर्फ एक महिला और एक मुस्लिम विधायक को जगह, पायलट खेमे से 7 मंत्री
34 साल के चांदना सबसे युवा और 75 साल के धारीवाल सबसे उम्रदराज मंत्री
मप्र, छत्तीसगढ़ में नए मंत्रियों को मंगलवार को दिलाई जा सकती है शपथ
जयपुर. राजस्थान में सोमवार को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ। राज्यपाल कल्याण सिंह ने राजभवन में 13 कैबिनेट और 10 राज्यमंत्रियों को शपथ दिलाई। तीन दिन चले मंथन के बाद दिल्ली में राजस्थान का मंत्रिमंडल तय हुआ था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के साथ चर्चा के बाद 23 मंत्री तय किए थे। गहलोत के खेमे से 13 विधायकों को मंत्री बनाया गया है। वहीं, पायलट के करीबी माने जाने वाले सात विधायक मंत्री बने हैं। दो मंत्रियों का दोनों खेमों से बराबर संपर्क है। हरीश चौधरी ऐसे विधायक हैं जो राहुल की सिफारिश पर मंत्री बनाए गए हैं।
मंत्रिमंडल पर नजर डालें तो 18 विधायक पहली बार मंत्री बने, जबकि पहली बार चुनकर आए 25 से अधिक विधायकों में से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया गया। 11 महिला विधायकों में से एकमात्र सिकराय विधायक ममता भूपेश मंत्री बनीं। मुस्लिमों में भी सिर्फ पोकरण विधायक सालेह मोहम्मद को मौका दिया गया। गठबंधन के दल आरएलडी से विधायक सुभाष गर्ग भी मंत्री बनाए गए।
कैबिनेट मंत्री
बीडी कल्ला (बीकानेर पश्चिम), शांति धारीवाल (कोटा उत्तर), परसादी लाल मीणा (लालसोट), मास्टर भंवरलाल मेघवाल (सुजानगढ़), लालचंद कटारिया (झोटवाड़ा), डॉ. रघु शर्मा (केकड़ी), प्रमोद जैन भाया (अंता), विश्वेंद्र सिंह (डीग-कुम्हेर), हरीश चौधरी (बायतू), रमेश मीणा (सपोटरा), उदयलाल आंजना (निंबाहेड़ा) , प्रताप सिंह खाचरियावास (सिविल लाइंस) और सालेह मोहम्मद (पोकरण) को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया।
राज्यमंत्री और स्वतंत्र प्रभार
गोविंद सिंह डोटासरा (लक्ष्मणगढ़- सीकर), ममता भूपेश (सिकराय), अर्जुन सिंह बामनिया (बांसवाड़ा), भंवर सिंह भाटी (कोलायत), सुखराम विश्नोई (सांचौर), अशोक चांदना (हिंडौली), टीकाराम जूली (अलवर ग्रामीण), भजनलाल जाटव (वैर), राजेन्द्र सिंह यादव (कोटपूतली) गठबंधन दल आरएलडी के सुभाष गर्ग (भरतपुर) को राज्यमंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाला मंत्री बनाया गया है।
18 विधायकों को पहली बार बनाया गया मंत्री
रघु शर्मा, लाल चंद, विश्वेंद्र सिंह, हरीश चौधरी, रमेश मीणा, प्रताप सिंह, उदयलाल आंजना, सालेह मोहम्मद, गोविंद डोटासरा, ममता भूपेश, अर्जुन बामनिया, भंवर सिंह, सुखराम विश्नोई, अशोक चांदना, टीकाराम जूली, भजनलाल, राजेन्द्र यादव, सुभाष गर्ग।
मंत्रिमंडल में गहलोत खेमा भारी
अशोक गहलोत खेमा सचिन पायलट खेमा
बीडी कल्ला भंवरलाल मेघवाल
शांति धारीवाल रमेश मीणा
परसादी लाल मीणा प्रताप सिंह खाचरियावास
लालचंद कटारिया डॉ. रघु शर्मा
सालेह मोहम्मद प्रमोद जैन भाया
अर्जुन सिंह बामनिया उदयलाल आंजना
भंवर सिंह भाटी भजनलाल जाटव
सुखराम विश्नोई
अशोक चांदना
टीकाराम जूली
सुभाष गर्ग
विश्वेंद्र सिंह
राजेन्द्र सिंह यादव
दोनों खेमों से बराबर संपर्क : ममता भूपेश और गोविंद सिंह डोटासरा
राहुल गांधी की सिफारिश : हरीश चौधरी (कांग्रेस में सचिव हैं)

23 में से 9 मंत्री ग्रेजुएट, एक 10वीं पास
शिक्षा कितने मंत्री
ग्रेजुएट 9
बारहवीं 7
पोस्ट ग्रेजुएट 3
पीएचडी 3
दसवीं 1
इनमें से एक ने एमबीए, एक ने बीएड और तीन ने एलएलबी की है। सबसे युवा मंत्री 34 साल के अशोक चांदना हैं। सबसे बुजुर्ग 75 साल के शांति धारीवाल हैं।

पूरी कैबिनेट करोड़पति, दो की संपत्ति 100 करोड़ से ज्यादा
उदयलाल आंजना 107 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक हैं। विश्वेंद्र सिंह 104 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक हैं। इनके अलावा मुख्यमंत्री गहलोत और उपमुख्यमंत्री पायलट समेत सभी मंत्री करोड़पति हैं।

जयपुर-भरतपुर से सबसे ज्यादा मंत्री
14 जिलों से कोई मंत्री नहीं। सबसे ज्यादा 3-3 मंत्री जयपुर और भरतपुर से। दौसा-बीकानेर से 2-2, अलवर, चूरू, चित्तौड़, जालौर, बूंदी, अजमेर, कोटा, बाड़मेर, करौली, जैसलमेर, सीकर, बांसवाड़ा और बारां से 1-1 मंत्री बनाए गए हैं।

संवैधानिक पदों पर नवाजे जा सकते हैं वरिष्ठ नेता
विधायक सीपी जोशी, दीपेंद्र सिंह शेखावत, परसराम मोरदिया, भंवर लाल शर्मा, महेंद्रजीत सिंह मालवीय, राजेंद्र पारीक, विजेंद्र ओला, राज कुमार शर्मा को मंत्री नहीं बनाया। इन्हें विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, मुख्यसचेतक, उप मुख्यसचेतक पद दिया जा सकता है।

2019 के लोकसभा चुनाव पर नजर
कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर सियासी समीकरण बैठाने की कोशिश की है। 25 में से 18 संसदीय क्षेत्रों से मंत्री बनाए गए हैं। जिन सात संसदीय क्षेत्रों से मंत्री नहीं बनाए गए हैं, उनमें शामिल पाली, सिरोही और झालावाड़ जिलों से एक भी कांग्रेस विधायक नहीं जीता है।

13 कैबिनेट और 10 राज्यमंत्रियों ने शपथ ली, 18 विधायक पहली बार मंत्री बने
मंत्रिमंडल में सिर्फ एक महिला और एक मुस्लिम विधायक को जगह, पायलट खेमे से 7 मंत्री
34 साल के चांदना सबसे युवा और 75 साल के धारीवाल सबसे उम्रदराज मंत्री
मप्र, छत्तीसगढ़ में नए मंत्रियों को मंगलवार को दिलाई जा सकती है शपथ
जयपुर. राजस्थान में सोमवार को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण हुआ। राज्यपाल कल्याण सिंह ने राजभवन में 13 कैबिनेट और 10 राज्यमंत्रियों को शपथ दिलाई। तीन दिन चले मंथन के बाद दिल्ली में राजस्थान का मंत्रिमंडल तय हुआ था। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री गहलोत और उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के साथ चर्चा के बाद 23 मंत्री तय किए थे। गहलोत के खेमे से 13 विधायकों को मंत्री बनाया गया है। वहीं, पायलट के करीबी माने जाने वाले सात विधायक मंत्री बने हैं। दो मंत्रियों का दोनों खेमों से बराबर संपर्क है। हरीश चौधरी ऐसे विधायक हैं जो राहुल की सिफारिश पर मंत्री बनाए गए हैं।
मंत्रिमंडल पर नजर डालें तो 18 विधायक पहली बार मंत्री बने, जबकि पहली बार चुनकर आए 25 से अधिक विधायकों में से किसी को भी मंत्री नहीं बनाया गया। 11 महिला विधायकों में से एकमात्र सिकराय विधायक ममता भूपेश मंत्री बनीं। मुस्लिमों में भी सिर्फ पोकरण विधायक सालेह मोहम्मद को मौका दिया गया। गठबंधन के दल आरएलडी से विधायक सुभाष गर्ग भी मंत्री बनाए गए।
कैबिनेट मंत्री
बीडी कल्ला (बीकानेर पश्चिम), शांति धारीवाल (कोटा उत्तर), परसादी लाल मीणा (लालसोट), मास्टर भंवरलाल मेघवाल (सुजानगढ़), लालचंद कटारिया (झोटवाड़ा), डॉ. रघु शर्मा (केकड़ी), प्रमोद जैन भाया (अंता), विश्वेंद्र सिंह (डीग-कुम्हेर), हरीश चौधरी (बायतू), रमेश मीणा (सपोटरा), उदयलाल आंजना (निंबाहेड़ा) , प्रताप सिंह खाचरियावास (सिविल लाइंस) और सालेह मोहम्मद (पोकरण) को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया।
राज्यमंत्री और स्वतंत्र प्रभार
गोविंद सिंह डोटासरा (लक्ष्मणगढ़- सीकर), ममता भूपेश (सिकराय), अर्जुन सिंह बामनिया (बांसवाड़ा), भंवर सिंह भाटी (कोलायत), सुखराम विश्नोई (सांचौर), अशोक चांदना (हिंडौली), टीकाराम जूली (अलवर ग्रामीण), भजनलाल जाटव (वैर), राजेन्द्र सिंह यादव (कोटपूतली) गठबंधन दल आरएलडी के सुभाष गर्ग (भरतपुर) को राज्यमंत्री या स्वतंत्र प्रभार वाला मंत्री बनाया गया है।
18 विधायकों को पहली बार बनाया गया मंत्री
रघु शर्मा, लाल चंद, विश्वेंद्र सिंह, हरीश चौधरी, रमेश मीणा, प्रताप सिंह, उदयलाल आंजना, सालेह मोहम्मद, गोविंद डोटासरा, ममता भूपेश, अर्जुन बामनिया, भंवर सिंह, सुखराम विश्नोई, अशोक चांदना, टीकाराम जूली, भजनलाल, राजेन्द्र यादव, सुभाष गर्ग।
मंत्रिमंडल में गहलोत खेमा भारी
अशोक गहलोत खेमा सचिन पायलट खेमा
बीडी कल्ला भंवरलाल मेघवाल
शांति धारीवाल रमेश मीणा
परसादी लाल मीणा प्रताप सिंह खाचरियावास
लालचंद कटारिया डॉ. रघु शर्मा
सालेह मोहम्मद प्रमोद जैन भाया
अर्जुन सिंह बामनिया उदयलाल आंजना
भंवर सिंह भाटी भजनलाल जाटव
सुखराम विश्नोई
अशोक चांदना
टीकाराम जूली
सुभाष गर्ग
विश्वेंद्र सिंह
राजेन्द्र सिंह यादव
दोनों खेमों से बराबर संपर्क : ममता भूपेश और गोविंद सिंह डोटासरा
राहुल गांधी की सिफारिश : हरीश चौधरी (कांग्रेस में सचिव हैं)

23 में से 9 मंत्री ग्रेजुएट, एक 10वीं पास
शिक्षा कितने मंत्री
ग्रेजुएट 9
बारहवीं 7
पोस्ट ग्रेजुएट 3
पीएचडी 3
दसवीं 1
इनमें से एक ने एमबीए, एक ने बीएड और तीन ने एलएलबी की है। सबसे युवा मंत्री 34 साल के अशोक चांदना हैं। सबसे बुजुर्ग 75 साल के शांति धारीवाल हैं।

पूरी कैबिनेट करोड़पति, दो की संपत्ति 100 करोड़ से ज्यादा
उदयलाल आंजना 107 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक हैं। विश्वेंद्र सिंह 104 करोड़ रुपए की संपत्ति के मालिक हैं। इनके अलावा मुख्यमंत्री गहलोत और उपमुख्यमंत्री पायलट समेत सभी मंत्री करोड़पति हैं।

जयपुर-भरतपुर से सबसे ज्यादा मंत्री
14 जिलों से कोई मंत्री नहीं। सबसे ज्यादा 3-3 मंत्री जयपुर और भरतपुर से। दौसा-बीकानेर से 2-2, अलवर, चूरू, चित्तौड़, जालौर, बूंदी, अजमेर, कोटा, बाड़मेर, करौली, जैसलमेर, सीकर, बांसवाड़ा और बारां से 1-1 मंत्री बनाए गए हैं।

संवैधानिक पदों पर नवाजे जा सकते हैं वरिष्ठ नेता
विधायक सीपी जोशी, दीपेंद्र सिंह शेखावत, परसराम मोरदिया, भंवर लाल शर्मा, महेंद्रजीत सिंह मालवीय, राजेंद्र पारीक, विजेंद्र ओला, राज कुमार शर्मा को मंत्री नहीं बनाया। इन्हें विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, मुख्यसचेतक, उप मुख्यसचेतक पद दिया जा सकता है।

2019 के लोकसभा चुनाव पर नजर
कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर सियासी समीकरण बैठाने की कोशिश की है। 25 में से 18 संसदीय क्षेत्रों से मंत्री बनाए गए हैं। जिन सात संसदीय क्षेत्रों से मंत्री नहीं बनाए गए हैं, उनमें शामिल पाली, सिरोही और झालावाड़ जिलों से एक भी कांग्रेस विधायक नहीं जीता है।

पांच राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में जो चुनाव के परिणाम आये हैं, उसकी गूंज आने वाले 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी दिखायी देंगे। लोकतंत्र के इस मंदिर की चौखट पर विराजमान दृश्य कुछ ऐसा है जिसमें व्यवस्था की सफाई-धुलाई के कोई आसार नहीं है। हालात किसी एक पार्टी तक ही सीमित नहीं, बल्कि सभी प्रमुख दलों में टिकटों की दावेदारी में कांग्रेस, भाजपा और इसके साथ ही कोई भी अन्य दल इनसे अछूता नहीं है। वैसे सच यह है कि व्यक्ति विशेष की छवि से कहीं ज्यादा पैसे का महत्व हावी है। टिकटों की छीना-झपटी में पैसे व प्रलोभन की भूमिका को भांपा जा सकता है।
 
पांच राज्यों की ताजा चुनाव परिणाम शायद इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि वर्ष 2014 वाला जादू, दूसरे शब्दों में जुमला शायद अब ना चले। क्योंकि जनता अब चाय बेचने वाला मोदी, चाय पर चर्चा, आदर्श गांव, स्मार्ट सिटी, स्टार्टअप इंडिया, प्रधान चौकीदार, मन की बात, शब्दों का जादू, शायद अब उसे लुभा नहीं पा रही है या वह इन शब्दों के हकीकत से रू-ब-रू हो चुकी है, जनता द्वारा किये गये वोट शायद इसी की ओर इशारा कर रहे हैं और सरकार को इससे सबक लेना चाहिए। व्यर्थ के मुद्दे, जो वादा पूरा नहीं किया जा सकता, उसे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए हथकंडों के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए। क्योंकि एक निश्चित समय के बाद नेताओं द्वारा किये गये वायदे उनके लिए ही आफत लेकर आते हैं और स्थिति ऐसी बनती है कि उन्हें न तो उससे निगलते बनता है और न उगलते बनता है। उनकी स्थिति सांप-छूछूंदर वाली बन जाती है।
 
एग्जिट पोल के परिणाम को धत्ता साबित करते हुए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने बीजेपी को बुरी तरह से हरा दिया है और एकतरफा बहुमत हासिल किया है। जबकि राजस्थान में कांग्रेस को जादुई आंकड़े से एक सीट कम मिला है, जितना सीट वह अनुमान लगा रही थी, उससे कम मिला है। वहीं मध्यप्रदेश में बहुमत के आंकड़ों से दो सीट कम मिला है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में तमाम नाराजगी के बावजूद बीजेपी के लिए सूपड़ा साफ जैसी स्थिति कहीं नहीं है और दोनों बड़े हिंदीभाषी राज्यों में उसने कांग्रेस को कांटे की टक्कर दी है। तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही बुरी तरह से धो डाला है। मिजोरम में कांग्रेस के हाथ से सत्ता चली गई है, वहां सत्ता मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) के हाथों आ गयी है।
 
आज किसान अपने फसल का दाम, जनता नोटबंदी की मार, बिजनेस करने वाले को अभी तक जीएसटी समझ नहीं आ रही है और बेरोजगार नौकरी के नाम पर हताशा में हैं। केंद्र सरकार येन-केन प्रकारेण रिजर्व बैंक के बटुए को साफ करने पर लगी हुई है और शायद यह भी कारण हो कि गवर्नर उर्जित पटेल की अंतरात्मा झकझोर रही हो और अब इतने समय तक सरकार का साथ देने के बाद उन्हें और कोई उपाय नहीं लग रहा हो जबकि उनके कार्यकाल का अब सिर्फ नौ महीना बचा हुआ था, तब उन्होंने निजी कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस्तीफे के पीछे उनका आरबीआइ की स्वायत्ता और उसके रिजर्व को सरकार को ट्रांसफर किए जाने समेत अन्य अहम मुद्दों पर सरकार के साथ टकराव चल रहा था।
 
केंद्र सरकार को उर्जित पटेल के इस्तीफा देने के एक दिन बाद ही आर्थिक मोर्चे पर एक और बड़ा झटका लगा है। वरिष्ठ अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला ने प्रधानमंत्री की इकोनॉमिस्ट एडवायजरी काउंसिल से इस्तीफा दे दिया है। भल्ला का इस्तीफा ऐसे समय में आया है जब बीते पन्द्रह महीनों में तीन अर्थशास्त्री सरकार का साथ छोड़ चुके हैं। सबसे पहले अगस्त 2017 में नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने अपना पद छोड़ा था, इसके बाद जून 2018 में पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने इस्तीफा दिया और 10 दिसंबर को आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने इस्तीफा दे दिया।
 
विधानसभा चुनावों के नतीजों ने जनता के बदलते मन-मिजाज की एक झलक पेश की है। इन चुनावों को 2019 के आम चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा है, इसलिए इनके नतीजों में सभी राजनीतिक दलों के लिए कुछ न कुछ संदेश जरूर छिपा है। यह बानगी है मोदी सरकार के कामकाज की। नोटबंदी से लेकर जीएसटी जैसे मुद्दे, पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों को भी परे रखें, तो भी केंद्र सरकार के खिलाफ हिंदी पट्टी में एक आक्रोश उभरता हुआ दिख ही रहा था।
 

बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे के सहारे चुनाव दर चुनाव जीत रही थी, लेकिन अभी जीत का सिलसिला अचानक टूट जाना यह बताता है कि मोदी का करिश्मा चल नहीं पा रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को न सिर्फ एकजुट विपक्ष की ओर से बड़ा चैलेंज मिलेगा, बल्कि उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से भी चुनौती मिल सकती है। पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले एक वर्ष में लगातार अपने को किसानों, आदिवासियों, दलितों और युवाओं के मुद्दे पर फोकस किया और केंद्र सरकार की नाकामियों की ओर जनता का ध्यान खींचा। पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद से राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी को सीधी चुनौती देते रहे हैं। उन्होंने नोटबंदी और राफेल से लेकर बैंकों को हजारों करोड़ का चूना लगाने वाले उद्योगपतियों तक के सवाल ढंग से उठाए। संयोग ही है कि नतीजों के दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का बतौर पार्टी अध्यक्ष एक साल पूरा हुआ है। कांग्रेस के पक्ष में आए जनादेश को भविष्य के नेता के रूप में राहुल गांधी की स्वीकृति की तरह भी देखा जाएगा। कांग्रेस के साथ कभी हां कभी ना के रिश्ते में जुड़े क्षेत्रीय दलों में भी राहुल गांधी के नेतृत्व से जुड़े संशय कुछ कम हो सकते हैं।

 
जनता अब स्थानीय मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दे रही है। सबसे बड़ी बात यह कि हिंदीभाषी राज्यों में उसे कांग्रेस में उम्मीद नजर आ रही है। हिंदीभाषी इलाके में जनता ने केंद्र और राज्य सरकारों के कामकाज के प्रति नाराजगी दिखाई है। कहा जा सकता है कि कांग्रेस की वापसी हो रही है। केंद्र और राज्य सरकारों ने काम करने के जो भी दावे किए, वे जमीनी स्तर पर हवाई साबित हुए। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में बीजेपी जिस हिंदुत्व के मुद्दे को उभार कर देशव्यापी माहौल बनाने में जुटी थी, उसका कुछ खास असर चुनावी राज्यों पर नहीं पड़ा। किसानों के सवाल, नौजवानों, दलितों-आदिवासियों के सवाल ज्यादा प्रभावी रहे।
 
कुल मिलाकर अभी तक के रुझानों में बीजेपी के लिए झटका है। देखने वाली बात यह है कि लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले आए इन चुनाव परिणामों का देश की राजनीति पर क्या असर पड़ता है। क्या पीएम मोदी अर्थव्यवस्था को लेकर कोई बड़ा फैसला करेंगे और इसके साथ ही अब वह क्या रणनीति अपनाएंगे। पांच राज्यों के परिणामों से स्पष्ट है कि अब माहौल उसके खिलाफ हो रहा है। भावनात्मक मुद्दों की हवा निकलना इन नतीजों का दूसरा संदेश है।
 
आम चुनावों में तीन-चार महीने का वक्त बाकी है। देखें, सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही जनता से जुड़ाव बनाने में इस समय का कैसा इस्तेमाल करते हैं। चुनाव नतीजों को मोदी सरकार के साढ़े चार साल के कामकाज पर टिप्पणी की तरह भी देखा जाएगा। मोदी चाहे कितना भी अच्छा भाषण कर लें, पर उसकी सार्थकता तभी है जब उनके दावे जमीन पर खरे उतरें। मोदी, शाह का जादू अब ढलान पर है और ऐसा हो सकता है कि मोदी, शाह के बाद नये नेतृत्व बीजेपी को कितना संभाल पायेंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा? मोदी, शाह की जोड़ी जो हर कुछ को बदलने में लगी है, कहीं जनता 2019 में वोट की चोट पर मोदी, शाह को ही न बदल दें।
 
-बरुण कुमार सिंह
डॉ दर्शन पाल
कृषि विशेषज्ञ एवं एक्टिविस्ट
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इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों की कर्जमाफी में सरकारें अपना फायदा जरूर देखती हैं और चुनावी जीत-हार के नजरिये से ही ऐसा करती भी हैं. लेकिन, यह जरूरी है कि किसानों के कर्जे माफ किये जाएं और साथ ही ऐसी नीतियां बनायी जाएं, ताकि किसान कर्ज के दलदल में फंसे ही नहीं. 
 
बीते करीब ढाई दशक से ज्यादा समय से देश में किसानों की कर्जमाफी की राजनीति हमारी सरकारें कर रही हैं, लेकिन आज तक किसी सरकार ने एेसी नीति नहीं बनायी, जिससे किसान पर कर्ज का बोझ आने ही न पाये और वह आत्महत्या न करे. सरकारें चार-साढ़े चार साल तक किसानों के मुद्दों-मांगों पर ओछी राजनीति करती रहती हैं और जब चुनाव आते हैं, तो पार्टियां कर्जमाफी का वादा कर देती हैं. निश्चित रूप से यह राजनीति ठीक नहीं है और इससे कभी भी किसानों की आय बढ़नेवाली नहीं है. 
 
इस वक्त देश का किसान कर्ज के आइसीयू में पड़ा हुआ एक ऐसा मरीज है, जिसे बाहर निकालना बहुत जरूरी है और यह काम कर्जमाफी से ही संभव है. अब रहा सवाल कर्जमाफी से सरकारों के राजस्व घाटे का, तो मैं समझता हूं कि नागरिकों की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही चाहिए. 
 
किसान पर कर्जे क्यों हैं, इसके कई अलग-अलग कारण हैं. लेकिन, यह बात पक्की है कि कर्ज देनेवाली संस्थाएं एक तो किसानों के साथ कठोर होती हैं, दूसरे यह कि किसान को लागत की कीमत भी नहीं मिल पाती, क्योंकि कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ या फिर कीड़े-मकोड़े लगने के साथ कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के आने से उसकी फसल बर्बाद हो जाती है. ऐसे में वह और भी कर्जदार हो जाता है.
 
कभी बारिश ज्यादा हाे गयी, या कभी बहुत कम हुई, तो भी किसान की फसल पर असर पड़ता है. कुल मिलाकर इस एतबार से देखें, तो एक बार कर्ज माफ कर देनेभर से ही किसान की समस्या का अंत नहीं हो जाता है. इसके लिए एक समुचित और व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत है, ताकि फसल बर्बादी की हालत में किसान की बर्बादी न होने पाये. 
 
मेरा मानना है कि किसानों को कर्ज देने की व्यवस्था में सिर्फ सरकारी संस्थाएं अग्रणी हों और उन्हें बेतहाशा सूद पर कर्ज देनेवाले साहूकारों से मुक्ति दिलायी जाये. पंजाब में 95 प्रतिशत किसान आत्महत्याएं स्थानीय स्तर पर साहूकारों द्वारा दिये कर्जे के कारण हुई हैं. इसे बंद करने की सख्त जरूरी है और यह तभी होगा, जब सरकारी व्यवस्था में कर्ज मिलना आसान हो. 
 
यह भी कि सरकारी व्यवस्था में कर्ज पर ब्याज चार प्रतिशत से अधिक तो कतई न हो और किसी भी कीमत पर न हो. साथ ही बैंक से लोन मिलने में भी आसान व्यवस्था बनायी जाये. अगर साहूकारों के चंगुल से किसानों को नहीं बचाया गया, तो बड़ी से बड़ी कर्जमाफी का भी कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि सरकारें तो माफ कर देंगी, मगर किसान साहूकार के कर्ज के हाथों मारा जाता रहेगा. 
 
इस समय जो बैंक से कर्ज मिल रहे हैं किसानों को, उस पर करीब सात प्रतिशत ब्याज है, जिसमें तीन प्रतिशत की सब्सिडी केंद्र सरकार देती है. ऐसे में बचा चार प्रतिशत, जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं कर रहा है, जितना कि साहूकारों का कर्ज करता है. यहां एक और बात समझनी होगी कि जो किसान छोटे-मझोले हैं, उनके लिए ब्याज दर 4 प्रतिशत से भी कम हो. 
 
उदारीकरण के बाद जब बाजार उन्मुक्त हुआ, तो हर चीज बाजार तय करने लगा. इसका नुकसान यह हुआ कि तब से किसानों (गरीबों भी कह सकते हैं) के स्वास्थ्य पर खर्च कर पाना महंगा होता गया है. एक तरफ जहां बीमारियों का इलाज महंगा होता गया, वहीं शिक्षा के बाजारीकरण से उनके बच्चे उच्च शिक्षा से भी वंचित होते चले गये. और बाकी चीजों की महंगाई का हाल तो हम सबको पता है कि यह रुकने का नाम नहीं ले रही है. 
 
ऐसे में किसानों पर दोगुनी-चौगुनी मार पड़ने लगी. इसलिए कर्ज में डूबे हुए किसान अपने फसलों की बर्बादी या लागत भी न मिल पाने के चलते या तो किसानी छोड़ने लगे या फिर आत्महत्याएं करने लगे. आज खेती में इस्तेमाल होनेवाली हर चीज तो महंगी हो गयी है. चाहे डीजल हो या बीज, रासायनिक खाद हो या पानी, सब कुछ तो उसकी पहुंच से बाहर है, तभी तो वह कर्ज लेता है. बैंक से कर्ज लेने में इतने लफड़े हैं कि वह मजबूरी में साहूकार से कर्ज ले लेता है. 
 
एक तरफ वह अपनी फसल की मार से परेशान होता है, तो दूसरी तरफ उसके बच्चे को न तो अच्छा स्वास्थ्य मिलता है, न अच्छी शिक्षा. नौकरी करनेवाले या मध्यवर्ग के लोग जब पैसा रहते हुए भी इन चीजों के महंगे होने से हमेशा परेशान रहते हैं, ऐसे में किसान के लिए यह जीवन नर्क की तरह है, जहां उसके पास पाने को कुछ नहीं है, खोने के लिए सब कुछ है, ऊपर से कर्ज अलग से है. 
 
हमारा तो इतना ही मानना है कि अगर सरकारें कर्जमाफी की राजनीति कर रही हैं, तो करें. लेकिन, जब तक फसलों में इस्तेमाल होनेवाली चीजों की कीमतें कम नहीं होंगी, और उत्पादन के बाद फसलों का समर्थन मूल्य उसकी पूरी लागत कीमत के साथ 50 प्रतिशत ज्यादा जोड़कर नहीं मिलेगा, तब तक किसान कर्ज लेते रहेंगे और आत्महत्या करते रहेंगे. 
 
कहने का अर्थ यह है कि किसान को कर्ज से माफी नहीं, बल्कि मुक्ति की जरूरत है. इसके लिए सरकारें योजनाएं और नीतियां बनाएं और ईमानदारी से बनाएं, तो मैं समझता हूं कि यह संभव है कि किसान कर्जमुक्त हो जायेंगे. 
 
लोग कह रहे हैं कि पूंजीपतियों के दिवालिया होने पर उनके लोन को सरकार राइट ऑफ कर देती है, लेकिन किसानों के थोड़े से कर्जे माफ करने में उसकी हिम्मत डोल जाती है. यह बात सही है. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि दोनों अलग-अलग प्रकार के कर्जे हैं और दोनों की प्रक्रिया और ब्याज अलग-अलग हैं. इन दोनों की तुलना नहीं करनी चाहिए. 
 
लेकिन, यह बात तो जरूरी कही जानी चाहिए कि एक तरफ पूंजीपति हजारों करोड़ रुपये लेकर विदेश भाग जा रहे हैं, और दूसरी तरफ महज कुछ हजार के कर्ज के चलते किसान आत्महत्या कर ले रहे हैं, तो क्या सरकार इतनी असंवेदनशील है कि उसे यह फर्क नजर नहीं आता? 
देश के नागरिकों को आत्महत्या से बचाना सरकार की जिम्मेदारी है, क्योंकि वे इस देश के नागरिक ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी हैं. इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए. 

 

उत्तर प्रदेश में गठबंधन को लेकर सर्वाधिक सक्रिय समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ही नजर आ रहे हैं, उनके बयानों से लगता है कि वे किसी भी हालत में गठबंधन करने को तैयार हैं, जबकि संगठन की दृष्टि से भारतीय जनता पार्टी के बाद सर्वाधिक मजबूत समाजवादी पार्टी ही है। संघर्ष करने वाले मजबूत जमीनी युवा कार्यकर्ताओं वाली समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने को कांग्रेस और बसपा के साथ अन्य छोटे दलों को अधिक रूचि दिखानी चाहिए थी पर, हो उल्टा रहा है, ऐसे में अखिलेश यादव का एक गलत निर्णय समाजवादी पार्टी को हाशिये पर पहुंचा सकता है।
 
 
मुलायम सिंह यादव की सूझ-बूझ वाली राजनैतिक चालों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमर तोड़ दी थी। बहुजन समाज पार्टी का उदय होने के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में संघर्ष करने लायक भी नहीं बची। दलित और मुस्लिम कांग्रेस के ही वोटर रहे हैं, इन दोनों को सपा-बसपा ने अपना स्थाई वोटर बना लिया, इसलिए कांग्रेस उत्तर प्रदेश से बाहर हो गई। मायावती को यह अच्छी तरह पता है कि उन्हें सबसे बड़ा खतरा कांग्रेस से ही है, इसलिए उनकी ओर से गठबंधन को लेकर उतावलापन कभी नहीं दिखता। मुलायम सिंह यादव की जगह अब अखिलेश यादव आ चुके हैं। अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तुलना में कांग्रेस को कुछ अधिक ही महत्व देते नजर आ रहे हैं। व्यक्ति को इतिहास से भी सबक लेना चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति अनुभव से सबक लेगा तो, जीवन अनुभव लेने में ही गुजर जायेगा, इसलिए अखिलेश यादव को व्यक्तिगत अनुभव करने की जगह पुरानी राजनैतिक घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए और फिर उसके अनुसार गठबंधन पर विचार करना चाहिए।
 
गठबंधन की अवस्था में सर्वाधिक लाभ कांग्रेस को और सर्वाधिक नुकसान समाजवादी पार्टी को ही होना है। नुकसान तक बात सीमित नहीं रहनी है। समाजवादी पार्टी कांग्रेस की जगह हाशिये पर भी जा सकती है, क्योंकि कार्यकर्ता और समर्थक एक बार दूर चले जाते हैं तो वे पलट कर नहीं आते और गठबंधन हुआ तो, समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक दूर जाने स्वाभाविक हैं, साथ ही अखिलेश यादव गठबंधन कर के शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया को भी भरपूर ऑक्सीजन उपलब्ध करा देंगे, उनका कार्यकर्ता प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया से जुड़ गया तो, निश्चित ही वह समाजवादी पार्टी की जगह ले लेगी।
 
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के परिणामों से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ है, फिर भी मान लीजिये कि गठबंधन होने की दशा में समाजवादी पार्टी को 30-35 सीटें मिलेंगी तो, शेष क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता कांग्रेस, बसपा और रालोद सहित गठबंधन के अन्य दलों के प्रत्याशियों को चुनाव लड़ायेंगे, उनके लिए संघर्ष करेंगे, उनके नारे लगायेंगे, ऐसा करने से अन्य दलों के प्रति कार्यकर्ताओं के अंदर जो ईर्ष्या का स्वाभाविक भाव होता है, वह समाप्त हो जायेगा, उन दलों के नेताओं और पदाधिकारियों के साथ रहने से व्यक्तिगत संबंध भी प्रगाढ़ होंगे, जिससे चुनाव में जो परिणाम आयें पर, बहुत सारे पदाधिकारी और कार्यकर्ता वहीं रह जायेंगे। 40-45 क्षेत्रों में साईकिल चुनाव-चिह्न दिखाई ही नहीं देगा, जिसका विपरीत असर आम जनता पर भी पड़ेगा, जिसका दुष्परिणाम विधान सभा चुनाव में देखने को मिलेगा, क्योंकि चुनाव-चिह्न न होने के कारण मुस्लिम वोटर कांग्रेस के पाले में हमेशा के लिए जा सकते हैं।
 
समाजवादी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव से ज्यादा जरूरी है विधान सभा चुनाव, पर लोकसभा चुनाव के कारण अखिलेश यादव विधान सभा चुनाव में युद्ध करने लायक नहीं बचेंगे। अगर, उन्हें यह लगता है कि लोकसभा चुनाव में त्याग कर के वे कांग्रेस का दिल जीत लेंगे तो, यह उनकी अपरिपक्वता ही कही जायेगी, क्योंकि विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं होगा, सो उस समय वह और ज्यादा दबाव में रखना चाहेगी, उस दिन का इंतजार करने से अखिलेश यादव को बचना चाहिए।
 
इसके अलावा जहाँ समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी होंगे, वहां खतरा नहीं रहेगा पर जहाँ गठबंधन के प्रत्याशी होंगे, वहां साईकिल चुनाव-चिह्न न पाकर समाजवादी विचारधारा के लोग प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के साथ जा सकते हैं, ऐसे में गठबंधन भी निरर्थक हो जायेगा और समाजवादी पार्टी के पैरों के नीचे से जमीन भी खिसक जायेगी, इसलिए समाजवादी पार्टी को अपने दम पर चुनाव लड़ना चाहिए। हाँ, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक-दूसरे से कोई खतरा नहीं है, इन दोनों के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को दोनों ही नहीं तोड़ सकते, इन दोनों को आपस में गठबंधन कर लेना चाहिए, दो दलों के बीच में गठबंधन होने से दोनों के पास सीटें भी भरपूर रहेंगी लेकिन प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया इस अवस्था में भी नुकसान पहुंचायेगी, सो अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए सर्वाधिक अच्छी अवस्था यही है कि समाजवादी पार्टी अकेले चुनाव लड़े। भारतीय जनता पार्टी किसी भी अवस्था में पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा पायेगी, उसकी सीटें घटना स्वाभाविक है। समाजवादी पार्टी अकेले लड़ कर 25 सीटें तक ले गई तो, गठबंधन के सहारे मिलीं 25 सीटों से ज्यादा कीमती कही जायेंगी। बात फिलहाल सीटों की नहीं है, बात है अस्तित्व को बचाने की। समाजवादी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी से कोई खतरा नहीं है, उसे खतरा कांग्रेस से ही है। नदी सागर में जायेगी तो, उसका विलीन होना स्वाभाविक ही है, इस बात को अखिलेश यादव समझते ही होंगे पर भाजपा को नुकसान पहुँचाने के लिए बलि देना चाहते हों तो, उनका गठबंधन करना सही रहेगा।
  
-बीपी गौतम
पांच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजों के कारण भाजपा का मनोबल पातालगामी हो रहा है और कांग्रेस का गगनचुंबी ! लेकिन थोड़ी गहराई में उतरें तो आपको पता चलेगा कि ये दोनों मनस्थितियां अतिवादी हैं। सच्चाई कहीं बीच में है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस, दोनों को जनता ने अधर में लटका दिया। दोनों में से किसी को भी बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को सीटें थोड़ी ज्यादा मिलीं लेकिन वोटों का हाल क्या रहा। मध्य प्रदेश में तो भाजपा को कांग्रेस से भी ज्यादा वोट मिले। उसके उम्मीदवारों को यदि कुछ सौ वोट और मिल जाते तो सरकार भाजपा की ही बनती। इस चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की कुर्सी तो चली गई लेकिन इज्जत बच गई। बल्कि बढ़ गई।
 
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए भी कहा जा सकता है कि ‘खूब लड़ी मर्दानी’। इसी प्रकार राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा से जो ज्यादा वोट मिले, वे भी एक प्रतिशत से कम ही थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इन दोनों बड़े प्रदेशों में ये दोनों पार्टियां लगभग बराबरी पर ही छूटीं। छत्तीसगढ़ की बात अलग है। वहां भाजपा के वोट भी काफी कम हुए है और सीटों का तो भट्ठा ही बैठ गया। लेकिन जरा सोचें कि यदि भाजपा अपना प्रधानमंत्री बदल ले या अगले पांच-छह महिने में दो-तीन चमत्कारी काम कर दे तो कांग्रेस क्या करेगी ? 
कोई जरुरी नहीं है कि लोग कांग्रेस को उतने ही वोट दें, जितने कि उन्होंने अभी दिए हैं। और फिर अखिल भारतीय स्तर पर आज भी भाजपा कांग्रेस से काफी आगे है। मिजोरम और तेलंगाना में कांग्रेस का हाल क्या हुआ है ? ये बात दूसरी है कि राहुल गांधी की छवि सुधरी है। अब राहुल को ‘पप्पू’ कहना जरा मुश्किल होगा, हालांकि गप्पूजी ने खुद को उलटाने का पूरा प्रबंध कर रखा है। इस प्रबंध का पहला झटका अभी तीनों हिंदी प्रदेशों ने दिया है। पप्पूजी को अपने आप श्रेय मिल रहा है। पप्पूजी ने गप्पूजी को पहले संसद में झप्पी मारी थी, अब सड़क पर मार दी है। साढ़े चार साल गप्प मारते-मारते गप्पूजी ने निकाल दिए। अब वे पांच-छह माह में कौन-सा बरगद उखाड़ लेंगे, समझ में नहीं आता। इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। अब आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ?
 
यह असंभव नहीं कि इन तीनों हिंदी प्रदेशों के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अगले चार-छह महिने में कुछ ऐसे विलक्षण काम कर दिखाएं जो 2019 के चुनावों में छा जाएं। यदि ऐसा हो जाए तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। 2019 में केंद्र में जो भी सरकार बनेगी, उसके लिए पहले से एक नक्शा तैयार रहेगा। वरना, भारत की जनता को फिर अगले पांच-साल रोते-गाते गुजारने होंगे।

 

 
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के दिन शुरू होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र के हंगामेदार होने के आसार हैं। एग्जिट पोल से नतीजों की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है उससे तो यह तय हो गया है कि सड़क से लेकर संसद तक हंगामा, शोर-शराबा और धूम-धड़ाका होना तय है। यदि भाजपा जीती तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए चुनाव के दौरान उठाए गए मुद्दों पर भाजपा को घेरना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन, यदि कांग्रेस कामयाब रही तो विपक्षी पार्टी ऐसे मुद्दे उठा सकती है जो राजनीतिक तापमान बढ़ा सकते हैं। सत्र के पहले ही दिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ जाएंगे और इसका असर संसद की कार्यवाही और सरकार-विपक्ष की रणनीति पर पड़ेगा। मोदी सरकार के आखिरी संसद सत्र में विपक्ष राफेल सौदा, सीबीआई बनाम सीबीआई, आरबीआई और सरकार में टकराव, किसान और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरना चाहता है।
 
इन सबके बीच भाजपा के धुर विरोधी दल महागठबंधन बनाने के प्रयास में जुटे हैं। संसद के शीतकालीन सत्र से पूर्व विपक्ष की एकजुटता को लेकर प्रयास तेज हो गए हैं। आगामी 10 दिसंबर को प्रस्तावित बैठक में विपक्ष के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी सुनिश्चित करने के प्रयास हो रहे हैं। बैठक के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा, टीडीपी, एनसीपी, टीएमसी, पीडीपी, एनसी, राजद, जदएस, डीएमके, भाकपा, माकपा, आम आदमी पार्टी समेत अन्य कई विपक्षी दलों ने अपनी स्वीकृति दे दी है। दरअसल, इस सत्र में सरकार और भाजपा की रणनीति राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर विपक्ष को घेरने की है। इसके तहत पार्टी सांसद राकेश सिन्हा समेत कुछ अन्य भाजपा सांसद राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने संबंधी निजी बिल राज्यसभा में पेश करेंगे। दूसरी ओर कांग्रेस सरकार पर पलटवार के लिए पहले दिन से ही किसानों की बदहाली को मुद्दा बनाना चाहती है। वाम दल भी इससे सहमत हैं। जबकि टीडीपी, राजद और टीएमसी कथित तौर पर केंद्र द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग के मुद्दे पर हमलावर होना चाहते हैं। 
 
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने से पहले होने जा रही यह बैठक लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन की नींव रखने की कवायद भी है। हालांकि बसपा प्रमुख मायावती और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस बैठक में शामिल होने को लेकर अभी असमंजस बना हुआ है। पिछले दिनों दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान विपक्ष के कई नेताओं ने एक मंच पर आकर अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की पहल पर हो रही इस बैठक में विपक्ष के महागठबंधन बनाने की पहल तेज की जाएगी। हालांकि इस महागठबंधन का स्वरूप बहुत कुछ पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से भी तय होगा।
 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। अभी एनडीए अथवा यूपीए के खेमे में खड़े दल पाला भी बदल सकते हैं। यदि कांग्रेस के पक्ष में परिणाम आते हैं तो तय है कि राहुल गांधी इस महागठबंधन के निर्विरोध नेता हो जाएंगे। लेकिन उलट आने पर कांग्रेस को विपक्षी दलों के सामने झुकना पड़ सकता है। इसी तरह भाजपा के पक्ष में आने पर मोदी की रायसीना हिल्स लौटने की संभावना बढ़ जाएगी, लेकिन विपरीत आने पर भाजपा में उनकी कार्यशैली से नाराज नेता अपनी आवाज बुलंद करने लगेंगे। इसलिए सभी को 11 दिसंबर को नतीजे आने का इंतजार है। कभी एनडीए के संयोजक रह चुके चंद्रबाबू नायडू इस मुहिम में लगे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी नायडू का साथ दे रही हैं। नायडू चाहते हैं कि विपक्षी दलों के प्रमुख नेता इस बैठक में मौजूद रहें।
 
मोदी सरकार के पिछले साढ़े चार साल में कांग्रेस भाजपा को घेरने में असफल ही दिख रही थी। ले-देकर कांग्रेस राफेल विमान डील पर मोदी सरकार को सड़क से लेकर संसद तक घेरती दिख रही थी। राहुल गांधी से लेकर तमाम कांग्रेस के नेता राफेल विमान डील में घोटाले की बात कहकर मोदी सरकार पर कीचड़ उछाल रहे हैं। राहुल गांधी तो सीधे प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। पांच राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस के लगभग हर मंच व सभा में राफेल की गूंज सुनाई दी। यह माना जा रहा था कि कांग्रेस संसद के शीतकालीन सत्र में राफेल का मुद्दा पूरे जोश-खरोश के साथ उठाएगी। लेकिन इन सबके बीच राफेल विमान खरीद में भ्रष्टाचार के कांग्रेसी आरोपों की काट के लिये मोदी सरकार ने यूपीए सरकार के शासन काल में अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर सौदे में बिचौलिए का धंधा करने वाले ब्रिटिश नागरिक क्रिश्चियन मिशेल को दबोचकर कांग्रेस का मुंह बंद कराने की तैयारी कर ली है। 3000 करोड़ के इस सौदे में लगभग 300 करोड़ रु. की रिश्वत बांटने वाले इस दलाल को दुबई से पकड़ कर अब दिल्ली ले आया गया है। जांच ब्यूरो के अधिकारी इससे अब सारी सच्चाई उगलवाएंगे। फौज के लिए खरीदे गए हेलिकॉप्टरों के सौदे में किस नेता और किस अफसर को कितने रुपये खिलाए गए हैं, ये तथ्य अब इस मिशेल से उगलवाए जाएंगे।
 
मिशेल के पकड़े जाने से पूर्व अगस्ता-वेस्टलैड कंपनी के जो अधिकारी पकड़े गए थे, उनकी डायरियों से कुछ नाम उजागर हुए हैं। उन नामों को सोनिया गांधी के परिवार से जोड़ा गया था। हमारी सेना के एक आला अधिकारी पर भी रिश्वतखोरी के आरोप हैं। मिशेल के जांच एजेंसियों के हत्थे चढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में यह जबर्दस्त हथियार आ गया है जिससे वह गांधी परिवार व कांग्रेस पर दबाव बना सकते हैं। सोनिया गांधी परिवार के विरुद्ध पहले ही ‘नेशनल हेरल्ड’ के मामले में आयकर विभाग जांच कर रहा है। अब मोदी ने सोनिया परिवार की तरफ अपनी चुनाव-सभा में नाम लेकर भी इशारा किया है। हो सकता है कि मिशेल जो भी सच उगले, वह कांग्रेस के गले की फांस बन जाए। यदि वह बोफोर्स की तरह सोनिया परिवार को अदालत में अपराधी सिद्ध न कर पाए तो भी चुनाव के अगले छह सात माह में भाजपा के लिए वह रामबाण सिद्ध हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी इतने तीर चलाएंगे कि कांग्रेस का महागठबंधन चूर-चूर हो सकता है। कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने में हर पार्टी सकुचाएगी। मिशेल की गिरफ्तारी के बाद इस बात की ज्यादा संभावना है कि राफेल मुद्दे पर कांग्रेस की आवाज धीमी पड़ जाएगी और संसद में राफेल का ज्यादा शोर-शराबा सुनाई नहीं देगा। 
 
 
जानकारों की मानें तो अगर पांच राज्यों के चुनाव नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आये तो मोदी सरकार पर राम मंदिर के लिये कानून बनाने का दबाव पार्टी के भीतर और बाहर दोनों ओर से पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के रवैये के बाद से राम मंदिर पर कानून लाने की मांग ने तेजी पकड़ी है। बीते 25 नवंबर को अयोध्या में धर्मसभा के बाद से अयोध्या मुद्दा लगातार सुर्खियों में है। सूत्रों की मानें तो अंदर ही अंदर भाजपा राम मंदिर के लिये बिल लाने की तैयारियों पर भी काम कर रही है। भाजपा के कई सांसद व नेता दबी जुबान से यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने तय कर लिया है कि शीतकालीन सत्र में राम मंदिर निर्माण के लिए कानून पारित करा लिया जाये। मोदी सरकार ने 16 नवंबर को ही अपने सभी सांसदों को ‘व्हिप‘ जारी करते हुए संसद सत्र के दौरान दिल्ली से बाहर नहीं जाने के निर्देश दिये हैं। असल में राम मंदिर पर कानून लाकर मोदी सरकार जहां अपने वोट बैंक को एकजुट करने की चाल चलेगी वहीं संसद में जब राम मंदिर के कानून को लेकर चर्चा होगी, तब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की असलियत का भी पता चल जायेगा कि वह कितने बड़े जनेऊधारी और शिवभक्त हैं। 
 
 लोकसभा चुनावों से पहले संभवतः यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस सरकार का आखिरी पूर्णकालिक सत्र होगा। लिहाजा, इस सत्र में सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। खासकर जब सत्र के पहले दिन ही विधानसभा चुनावों की मतगणना का असर संसद की कार्यवाही पर पड़ेगा। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनाव के नतीजे 11 दिसंबर को ही आएंगे। इस वक्त मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा का शासन है जबकि तेलंगाना में टीआरएस और मिजोरम में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। एग्जिट पोल के नतीजे बदलाव व कांटे की टक्कर की तस्वीर पेश कर रहे हैं। मोदी सरकार के लिए शीतकालीन सत्र का शांतिपूर्ण ढंग से चलना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उसके बाद यह सरकार सिर्फ संक्षिप्त बजट सत्र ही बुला पाएगी, जिसमें मई 2019 तक का बजट पारित करना होगा। सरकार इस दौरान लंबित कुछ जरूरी विधेयक भी पारित कराना चाहेगी, जबकि विपक्ष सरकार को घेरना चाहेगा। राम मंदिर, राफेल, अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर जैसे तमाम मुद्दे दिसंबर में दिल्ली की सर्दी के बीच संसद का गर्माने का काम करेंगे।
 
-आशीष वशिष्ठ
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
भारतीय समाज में सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुददों को उठाने वाले भारतीय संविधान के निर्माता व सामाजिक समरसता के प्रेरक भारतरत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू मध्यप्रदेश में हुआ था। इनके पिता रामजी सकपाल व माता भीमाबाई धर्मप्रेमी दंपत्ति थे। अम्बेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था। जो उस समय अस्पृश्य मानी जाती थी। इस कारण उन्हें कदम−कदम पर असमानता और अपमान सहना पड़ता था। सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रधानता दिलाने वाले विचारवान नेता थे डॉ. अम्बेडकर। जिस समय उनका जन्म हुआ तथा उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रारम्भ हुआ उस समय समाज में इतनी भयंकर असमानता थी कि जिस विद्यालय में वे पढ़ने जाते थे वहां पर अस्पृश्य बच्चों को एकदम अलग बैठाया जाता था तथा उन पर विद्यालयों के अध्यापक भी कतई ध्यान नहीं देते थे। न ही उन्हें कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अंदर बैठने तक की अनुमति नहीं होती थी साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊंची जाति का व्यक्ति ऊंचाई से उनके हाथों पर पानी डालता था क्योंकि उस समय मान्यता थी कि ऐसा करने से पानी और पात्र दोनों अपवित्र हो जाते थे। एक बार वे बैलगाड़ी में बैठ गये तो उन्हें धक्का देकर उतार दिया गया। वह संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन कोई पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। एक बार वर्षा में वे एक घर की दीवार लांघकर बौछार से स्वयं को बचाने लगे तो मकान मालिक ने उन्हें कीचड़ में धकेल दिया था। इतनी महान कठिनाइयों को झेलने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने अपनी शिक्षा पूरी की। गरीबी के कारण उनकी अधिकांश पढ़ाई मिट्टी के तेल की ढिबरी में हुई। 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके बंबई विवि में प्रवेश लिया जिसके बाद उनके समाज में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। 1923 में वे लंदन से बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत वापस आये और वकालत शुरू की। वे पहले ऐसे अस्पृश्य व्यक्ति बन गये जिन्होंने भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सफलता प्राप्त की। उस समय वे भारत के सबसे अधिक पढ़े लिखे तथा विद्वान नेता थे। डॉ. अम्बडेकर संस्कृत भाषा के प्रबल समर्थक थे। 
 
 
इसी साल वे बंबई विधानसभा के लिए भी निर्वाचित हुए पर छुआछूत की बीमारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। 1924 में भीमराव ने निर्धन और निर्बलों के उत्थान हेतु बहिष्कृत हितकारिणी सभा बनायी और संघर्ष का रास्ता अपनाया। 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की और 1937 में उनकी पार्टी ने केंद्रीय विधानसभा के चुनावों में 15 सीटें प्राप्त कीं। इसी वर्ष उन्होनें अपनी पुस्तक 'जाति का विनाश' भी प्रकाशित की जो न्यूयार्क में लिखे एक शोध पर आधारित थी। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गांधी द्वारा रचित शब्द 'हरिजन' की पुरजोर निंदा की। यह उन्हीं का प्रयास है कि आज यह शब्द पूरी तरह से प्रतिबंधित हो चुका है। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं तथा मूकनायक नामक एक पत्र भी निकाला। 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश को लेकर उन्होंने सत्याग्रह और संघर्ष किया। उन्होंने पूछा कि यदि भगवान सबके हैं तो उनके मंदिर में कुछ ही लोगों को प्रवेश क्यों दिया जाता है। अछूत वर्गों के अधिकारों के लिये उन्होंने कई बार कांग्रेस तथा ब्रिटिश शासन से संघर्ष किया। 
 
1941 से 1945 के बीच उन्होंने अत्यधिक संख्या में विवादास्पद पुस्तकें लिखीं और पर्चे प्रकाशित किये। जिसमें "थॉट ऑफ पाकिस्तान" भी शामिल है। डॉ. अम्बेडकर ही थे जिन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा की जा रही अलग पाकिस्तान की मांग की कड़ी आलोचना व विरोध किया। उन्होंने मुस्लिम महिला समाज में व्याप्त दमनकारी पर्दा प्रथा की भी निंदा की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रममंत्री के रूप में भी कार्यरत रहे। भीमराव को विधिमंत्री भी बनाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने संविधान निर्माण में महती भूमिका अदा की। 2 अगस्त 1947 को अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नये संविधान की रचना के लिये बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। संविधान निर्माण के कार्य को कड़ी मेहनत व लगन के साथ पूरा किया और सहयोगियों से सम्मान प्राप्त किया। उन्हीं के प्रयासों के चलते समाज के पिछड़े व कमजोर तबकों के लिये आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी लेकिन कुछ शर्तों के साथ। लेकिन आज के तथाकथित राजनैतिक दल इसका लाभ उठाकर अपनी राजनीति को गलत तरीके से चमकाने में लगे हैं। संविधान में छुआछूत को दण्डनीय अपराध घोषित होने के बाद भी उसकी बुराई समाज में बहुत गहराई तक जमी हुई थी। जिससे दुखी होकर उन्होंने हिंदू धर्म छोड़ने और बौद्धधर्म को ग्रहण करने का निर्णय लिया। 
 
यह जानकारी होते ही अनेक मुस्लिम और ईसाई नेता तरह−तरह के प्रलोभनों के साथ उनके पास पहुंचने लगे। लेकिन उन्हें लगा कि इन लोगों के पास जाने का मतलब देशद्रोह है। अतः विजयदशमी (14 अक्टूबर 1956) को नागपुर में अपनी पत्नी तथा हजारों अनुयायियों के साथ भारत में जन्मे बौद्धमत को स्वीकार कर लिया। वह भारत तथा हिंदू समाज पर उनका एक महान उपकार है। एक प्रकार से डॉ. अम्बेडकर एक महान भारतीय विधिवेत्ता बहुजन राजनैतिक नेता बौद्ध पुनरूत्थानवादी होने के साथ−साथ भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबा साहेब के लोकप्रिय नाम से भी जाना जाता है। बाबाजी का पूरा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्याप्त जाति व्यवस्था के विरूद्ध संधर्ष में बीता। बाबासाहेब को उनके महान कार्यों के लिए भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। समाज में सामाजिक समरसता के लिए पूरा जीवन लगाने वाले बाबासाहेब का छह दिसम्बर 1956 को देहावसान हो गया। डॉ. अम्बेडकर को अनेकानेक विभूतियों से नवाजा गया। डॉ. अम्बेडकर आधुनिक भारत के निर्माता कहे गये। उन्हें संविधान का निर्माता, शोषित, मजदूर, महिलाओं का मसीहा बताया गया। एक प्रकार से वे महान मानवाधिकारी क्रांतिकारी नेता भी थे। पिछड़ों व वंचित समाज के सबसे प्रतिभाशाली मानव थे। डॉ. अम्बडेकर भारत सशक्तीकरण के प्रतीक बने। आजाद भारत में वे भारत के प्रथम कानून मंत्री तो बने लेकिन उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी से कभी पटरी नहीं बैठ पायी। उनमें सभी प्रकार के गुण विद्यमान हो गये जो किसी बिरले में ही होते हैं। वह विश्व स्तर के विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, संविधानविद, लेखक, दार्शिनक, इतिहासकार, आंदोलनकारी थे। अमेरिका में कोलम्बिया विवि के 100 टाप विद्वानों में उनका नाम था। 
 
 
वर्तमान समय में भारत की पूरी राजनीति बाबा साहेब के इर्दगिर्द ही थम रही है। देश व प्रदेश के सभी राजनैतिक संगठन बाबा साहेब को भुनाने के लिए जुट गये हैं। आज दलित और पिछड़े समाज के लोगों को समर्थ बनाने के लिए प्रेरित करने में भी डॉ. अंबेडकर की ही महान भूमिका थी।
 
-मृत्युंजय दीक्षित

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