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राजनीति

राजनीति (6670)

राहुल गाँधी नें एक पात्र जारी कर, अपने इस्तीफे के फैसले को सार्वजनिक कर दिया है. इसके साथ ही सोशल मीडिया साइट्स में भी उन्होनें अपने इस्तीफे की बात सार्वजनिक की, जिससे सोशल मीडिया में काफी प्रतिक्रिया मिल रही है. कांग्रेस के सभी बड़े नेता बा भी राहुल को मनाने में लगे हुए हैं. राहुल गाँधी नें जो पत्र जरी किया है, उसमें उन्होनें कहा कि-

 

 

 

“मैं अब कांग्रेस अध्यक्ष नहीं हूँ” : राहुल गाँधी

“एक महीने पहले ही हो जाना था चुनाव” : राहुल गाँधी

“CWC जल्द से जल्द बैठक बुलाकर फैसला ले” : राहुल गाँधी

“हफ्ते भर में चुन लिया जाएगा पार्टी अध्यक्ष” : सूत्र

राहुल नें ट्वीटर पर भी ट्वीट किया : “कांग्रेस की सेवा करना मेरे लिए सम्मान की बात रही, जिसके मूल्य और आदर्श हमारे खुबसूरत राष्ट्र के जीवन दाई रक्त का काम करते रहें है. मेरे ऊपर अपने देश और संगठन के बेहद आभार और और प्यार का क़र्ज़ है. जय हिन्द.”

 

अब जब की साफ़ हो गया है कि राहुल गाँधी को तमाम कांग्रेसी नेताओं से मनावाने के बाद भी राहुल अपने इस्तीफे पर कायम है, तो आपको बताते चले की कांग्रेस का जो नियमावली कहती है, कि अब कांग्रेस के जो सबसे वरिष्ट नेता या जनरल सेक्रेटरी (महासचिव) होंगे, वो  कांग्रेस के कार्यकारिणी अध्यक्ष होंगे. यानि मोतीलाल वोरा इस वक़्त सबसे वरिष्ट हैं, और वे ही अगली कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाएँगे, जिसमें नए अध्यक्ष के बारे में जो भी दिशा निर्देश है, दिए जाएँगे.

अन्य कांग्रेसी नेताओं नें राहुल गाँधी के इस्तीफे के विषय में क्या कहा-

"कार्यकारी समिति की बैठक में सब नें अनुरोध किया कि राहुल गाँधी का इस्तीफा नामंजूर कर लिया जाए, लेकिन वे नहीं माने. अभी कांग्रेस को राहुल गाँधी के नेत्रित्व की बहुत ज़रुरत है, राहुल गाँधी जी 2017 से कांग्रेस अध्यक्ष बनें और उन्होनें कांग्रेस को लगातार सभी प्रदेशों में मजबूती देने का कार्य किया" मोतीलाल वोरा 

"राहुल गाँधी जी से देश के कार्यकर्ताओं नें आग्रह किया है, कि अपना इस्तीफा वापिस ले-ले, और अध्यक्ष के रूप में दुबारा कांग्रेस पार्टी का नेत्रित्व करें. क्योकि जो संघर्ष उन्होनें किया है, वो सभी लोग जानते हैं, आगे आने वाले चुनावों में राहुल गाँधी जी की नेत्रित्व की बहुत ज़रूरत है" सचिन पायलट  (डिप्टी सी. एम्. राजस्थान)

वहीँ भाजपा नेत्री स्मृति ईरानी से जब पत्रकारों नें पुछा की राहुल गाँधी नें अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है, तो स्मृति ईरानी जी ने बस मुस्कुराते हुए जय श्री राम कहा.

इन सब बातों के क्या मतलब हो सकते हैं, ये तो समय ही बताएगा. लेकिन अभी राहुल के इस्तीफे ने कांग्रेस को हिला कर रख दिया है.

भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कह कर सबको चौंका दिया कि अमर्यादित अथवा अहंकारी आचरण करने वाला व्यक्ति चाहे किसी का भी बेटा हो उसे पार्टी से निकाल देना चाहिए। उन्होंने यह बात इंदौर-तीन से विधायक और बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय को लेकर कही। दरअसल पिछले दिनों आकाश विजयवर्गीय ने इंदौर नगर निगम के कर्मचारी पर बल्ला चला दिया था। नगर निगम कर्मचारी उस समय बरसात के दौरान जर्जर हो रही इमारत को तोड़ने के लिए नगर निगम अमले के साथ था। नगर निगम के इस कार्मचारी पर आकाश विजयवर्गीय द्वारा बल्ला चलाए जाने की घटना मोबाईल में कैद हो गई और सोशल मीडिया पर आग की तरह फैल गई। जिसके बाद आकाश विजयवर्गीय पर एफआईआर दर्ज हुई और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी लेकिन भोपाल स्थित विशेष कोर्ट ने उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया।
इंदौर में हुई घटना के बाद मध्य प्रदेश के दमोह में भारतीय जनता युवा मोर्चा कार्यकर्ता सरकारी दफ्तर में बल्ला लेकर पहुँच गया और अपनी यह तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल कर दी यही नहीं सतना जिला पंचायत दफ्तर में जिला पंचायत सीईओ पर बीजेपी कार्यकर्ताओं सहित जिला पंचायत अध्यक्ष ने जमकर मारपीट की। इंदौर में हुई घटना के बाद बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने अपने विधायक बेटे के बचाव में जमकर बयानबाजी की। इस दौरान कैलाश विजयवर्गीय ने कहा कि उनका बेटा कच्चा खिलाड़ी है। कैलाश विजयवर्गीय ने पूरी घटना पर कहा है कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। मुझे लगता है कि दोनों तरफ से बुरा व्यवहार किया गया। कच्चे खिलाड़ी हैं आकाश जी भी और नगर निगम कमिश्नर। यह कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है लेकिन इसे बड़ा बना दिया गया। 
 
लेकिन भोपाल जिला कोर्ट में विशेष अदालत से मिली जमानत के बाद विधायक आकाश विजयवर्गीय के शहर में होर्डिंग तथा पोस्टर लग गए और उनकी रिहाई की खुशी में कार्यकर्ताओं ने हर्ष फायर भी किए। आकाश विजयवर्गीय ने सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी कर इस पूरी घटना की सीबीआई जाँच करवाने की माँग भी की। यही नहीं उन्होंने मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री सज्जन सिंह वर्मा पर आरोप लगाते हुए इस घटना के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया और सीएम कमलनाथ से सीबीआई जाँच की माँग करवाने का आग्रह किया।
 
आकाश विजयवर्गीय के जानने वालों की बात करें तो उनका साफ तौर पर कहना है कि आकाश विजयवर्गीय बहुत सीधे साधे व्यक्ति हैं। यही नहीं अपने विधानसभा क्षेत्र में लोगों के हर दुख दर्द में शामिल होने वाले विधायक के रूप में उन्हें देखा जाता है। टीवी और मीडिया रिपोर्टों में भी आकाश विजयवर्गीय को लेकर इंदौर की जनता ने भी उनका समर्थन किया था। सीधे सौम्य व्यक्तित्व के चलते आकाश विजयवर्गीय को बहुत से लोग पसंद करते हैं। लेकिन नगर निगम कर्मचारी के साथ हुए विवाद के बाद उनकी छवि को कहीं न कहीं बट्टा लगा है।
जबकि राजनीति के चतुर खिलाड़ी के रूप में विधायक आकाश विजयवर्गीय के पिता और बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की छवि एक तेज तर्रार नेता के रूप में पहचानी जाती है। हरियाणा और बंगाल में प्रभारी रहते उन्होंने बीजेपी को आप्रत्याशित जीत दिलाई है। यही नहीं इंदौर शहर में उनका एक अलग ही रूतबा देखने को मिलता है। शायद इंदौर में एक कहावत इसीलिए प्रसिद्ध है कि इंदौर में ताई और भाई दोनों की चलती है। ताई यानि लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और भाई यानि कैलाश विजयवर्गीय। लोकसभा चुनाव में टिकिट न मिलने से सुमित्रा ताई की राजनीतिक जमीन कहीं न कहीं जाती रही है लेकिन वर्तमान दौर में भाई यानि कैलाश विजयवर्गीय की राजनीतिक जमीन इस लोकसभा चुनाव में उतनी ही मजबूत हुई है। यही कारण है कि उन्होंने अपने विधायक बेटे आकाश विजयवर्गीय को कच्चा खिलाड़ी बताया।
 
-दिनेश शुक्ल
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दोनों सदनों में चर्चा शुरू हुई। यह पहली बार नहीं बल्कि संसद में यह बरसों की परम्परा है। अभिभाषण पर चर्चा में दोनों सदनों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के सदस्य भाग लेते हैं। इस बार भाजपा नीत एनडीए भारी मतों से जीतकर आया। सन् 2019 के जनादेश में एक नहीं अनेक सन्देश सभी के लिए थे। जो समझना चाहे, वह समझे, जो नहीं समझना चाहते वह नहीं समझे। हम वर्षों से संसद में राष्ट्रपति अभिभाषण पर चर्चा सुन रहे हैं और भाग भी लेते रहे। इन दो दिनों की बहस में जो कुछ देखने को मिला उससे लगता है कि विपक्ष जनादेश से कोई सबक नहीं लेना चाहता है। उलटे वह पूरी तरह से जनता को दोषी मान रहे हैं और अपनी बहस के भाषणों में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं।
 
लोकसभा और राज्यसभा में दो दिन से राष्ट्रपति अभिभाषण पर चर्चा चल रही थी। हम सत्ता और विपक्ष के नेताओं को बहुत ध्यान से सुन रहे थे। सदन के माध्यम से दोनों सदनों को देश भी सुन रहा था। देश का 'विवेक' और देश के 'जन का विवेक' सामान्य नहीं होता है। वह बहुत ही असामान्य होता है। हम लाख सोचें कि हमारा विवेक सबसे अच्छा है पर सच्चाई यह है कि जनतंत्र में 'जन विवेक' ही सबसे बड़ा विवेक होता है। परसों 25 जून था। 25 जून सन् 1975 को देश में कांग्रेस ने आपातकाल लागू किया था। इस दौरान देश की जनता अपने घर में भी जोर से नहीं बोल सकती थी। जब आपातकाल के बाद सन् 1977 में लोकसभा चुनाव हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक चुनाव हार गयीं। जनतंत्र में जनविवेक का इससे बड़ा उदाहरण कहीं देखने को नहीं मिला।
 
लोकसभा में पहली बार आये ओडिशा के सांसद, राज्यमंत्री प्रताप चन्द्र सारंगी ने अभिभाषण पर प्रारंभिक चर्चा शुरू की। सादा जीवन और उच्च विचारों पर सदैव चलने वाले सारंगी ने अभिभाषण में कही गयी बातों पर विस्तृत चर्चा की। उन्होंने अपने भाषण में विनम्रता से राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अपने विचार रखे। उन्होंने सदन को बताया कि भाजपा को और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह जनादेश क्यों और कैसे मिला। भाजपा की जीत के कारणों पर भी बड़ी विनम्रता से विषय रखा। गत पांच वर्षों में देश के विकास की भी चर्चा की। वहीं राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव का समर्थन किया।  
 
एक आदिवासी युवा डॉ. हिना विजय गावित (महाराष्ट्र) जब बोल रही थीं तो लग रहा था कि भारत का जनतंत्र बहुत परिपक्व हो गया है और आज़ादी के बाद अब सुदूर आदिवासी इलाकों में भी मोदी सरकार की योजनाएं सिर्फ पहुंच ही नहीं गयी है बल्कि धरती पर उसका प्रभाव भी दिखाई दे रहा है। डॉ. हिना जब अपने संसदीय क्षेत्र का वर्णन कर रही थीं तो लग रहा था कि भारत का गरीब अब विकास की ओर जाना चाहता है और वह गरीबी पर रोने के बजाय इसे दूर करने की दिशा में सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है।
 
दूसरी तरफ जब कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल के नेता बोलने के लिए खड़े हुए तो ऐसा लग रहा था कि 'रस्सी जल गयी पर अभी ऐंठन नहीं गयी'। उलटे वे ऐसा जता रहे थे कि भारत की परिपक्व जनता ने बहुत बड़ी गलती कर दी। कांग्रेस के नेताओं के मन में जनादेश को सम्मान करने का साहस उनके राष्ट्रपति के अभिभाषण के चर्चा में दिए गए भाषणों में नहीं देखा गया। आज स्थिति यह है कि लोग देखना चाहते हैं कि जनादेश के बाद विपक्षी दल खासकर कांग्रेस, बसपा और सपा में कुछ समझ आई होगी। पर वह सब देखने को नहीं मिला। हताश और निराश विपक्ष जनादेश को स्वीकारने में भी हिचकिचा रहा है। कमोबेश सभी विपक्षी दलों की स्थिति जस की तस थी।
राज्यसभा की तरफ नजर डालें तो देखेंगे कि वहां पर भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने अपनी प्रस्तावना में साफ़ तौर पर कहा कि हमने जन-जन के लिए जो काम किया उसी के आधार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश में जन-जन का सहयोग मिला। नड्डा जी ने साफ़ तौर पर कहा कि देश ने नरेंद्र मोदी के साथ चलने का रास्ता तय किया। अपने 50 मिनट के भाषण में उन्होंने जनादेश मिलने के कारणों पर भी प्रभावी प्रकाश डाला। उनके भाषण में सच्चाई थी। उत्साह था, उन्माद नहीं। ख़ुशी थी, पर अभिमान नहीं। नड्डाजी ने प्रस्ताव का समर्थन किया। श्रीमती सम्पतिया उइके जो मध्य प्रदेश के मंडला आदिवासी क्षेत्र से आती हैं, उन्होंने भी अपने भाषण में बताया कि गरीबों के लिए मोदी सरकार ने क्या-क्या किया। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अब मोदीजी की सरकार शब्दों से गरीबों के लिए नहीं बल्कि पूरी तरह अपने आचरण से गरीबों के लिए जी रही है।
 
संपतिया उइके ने कहा कि आज गांवों में गरीबों, आदिवासियों और अनुसूचित जाति के परिवारों में नई आशा जगी है। उन्हें विश्वास होने लगा है कि उन्हें भी आवास मिलेगा। 'अपना घर' का सपना पूरा होगा। 'गैस चूल्हे' के लिए उनका नाम भी जुड़ेगा। पानी का संकट भी दूर होगा। ईलाज और दवाई के अभाव में अब गरीब मौत के मुंह में नहीं जाएगा। गांव-गांव में नरेंद्र मोदी की गरीबों के लिए चल रही योजनाओं ने उनकी जिंदगी में एक नई रोशनी प्रदान की है। हर गांव के गरीबों की जुबान पर नरेंद्र मोदी का नाम पहुंच चुका है। उन्होंने कहा कि गरीबों ने अब मान लिया है कि नरेंद्र मोदी की सरकार गरीबों की सरकार है। 
 
वहीं कांग्रेस के राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आज़ाद ने अभिभाषण पर बोलते हुए जो कुछ कहा, उससे यह बात भी साफ़ हो रही थी कि कांग्रेस जनता पर बहुत गुस्सा है। उन्हें लग रहा था कि जनादेश तो सदैव कांग्रेस को ही मिलना चाहिए। उनके भाषण में दुःख कम बल्कि जनता के खिलाफ अधिक रोष दिख रहा था। वहीं उनके चेहरे पर यह झलक रहा था कि इस जनादेश को वे पचा नहीं पा रहे हैं। विपक्ष का नेता कहते हुए आज भी देश के सामने पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम सामने आता है। आज जब अटलजी की तुलना में विपक्षी दलों के नेताओं को तराजू पर रखती है 'तराजू' सस्वतः शर्मिन्दा हो जाता है।
  
कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के नेताओं ने जो भाषण दिया वह जाहिर कर रहा था कि उन्हें भारत की जनता के जनविवेक पर शंका है। सच्चाई यही है कि आज भी कांग्रेस सहित सपा-बसपा आत्म मंथन करने के बजाय अपना गुस्सा जनता पर दिखा रहे हैं। शायद ये भूल जाते हैं कि जनतंत्र में जनादेश को स्वीकार करना पड़ता है न कि जनता को गाली देना होता है। गुलाम नबी आजाद जैसे अनुभवी नेता भाजपा के बारे में जो कुछ कह रहे थे, उससे लग रहा था कि वे भारत की जनता को 72 वर्ष की आज़ादी के बाद भी अपरिपक्व मानते हैं। यही कारण है कि आज जनता के बीच कांग्रेस सिमटती जा रही है। 
लोकसभा में तो और भी गजब हो गया। कांग्रेस के विपक्ष के नवनियुक्त नेता को अपने भाषण पर पहले ही दिन प्रधानमंत्री से माफ़ी मांगनी पड़ी। इन दो दिनों में यह बात धीरे-धीरे सामने आ रही है कि विपक्ष न तो नकारात्मक और न ही सकारात्मक विरोध कर पा रहा है। वह पूरी तरह देश की जनता को दोषी मान रहा है। जो विपक्षी दल जनादेश का सम्मान न कर सके, उसका भविष्य में देश की जनता कैसे सम्मान करेगी। ऐसे सवाल अभी भी सेंट्रल हॉल में गूंज रहे हैं। सेंट्रल हॉल में सभी कांग्रेस समर्थकों की यही पीड़ा है कि कांग्रेस इस हालत के बाद भी सुधरना नहीं चाहती है।  
 
हर क्षण-हर पल भारत के लिए जीना है
       
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को आह्वान किया। उन्होंने कहा कि चुनाव हो गए। जो आपको कहना था, और जो हमें कहना था, हम सभी ने कहा। अब आज हम सभी का दायित्व है कि भारत के विकास में हम सभी एक साथ खड़े हों। विकास भारत का होना है न कि किसी राजनैतिक दल का। उन्होंने कहा कि विपक्ष हमें आगाह करे। हम उनके एक-एक शब्द को देश हित में ग्राह्य करेंगे।
 
उन्होंने आगे कहा कि विपक्ष की भूमिका उन्हें तय करनी है। लेकिन भारत की एक सौ तीस करोड़ जनता यानि उसके लिए सत्ता और विपक्ष दोनों जिम्मेदार है। मोदीजी ने स्पष्ट कहा कि जनादेश के मायने हमारे लिए, फूलमाला, स्वागत या सत्कार कराना नहीं है। हमें हर पल हर क्षण जनता की सेवा करनी है। उन्होंने कहा कि हमारे पिछले पांच वर्षों के जनविकास कार्यों पर मुहर लगाकर भारत की जनता ने पुन: उससे अधिक काम करने की जिम्मेदारी सौंपी है।
 
श्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि हमें ऊंची उड़ान भरनी है पर जमीन से नहीं कटना है। हमारी हर उड़ान जमीन के लोगों के विचार के लिए होगी। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के मित्र कह रहे थे कि हम बहुत ऊंचाई पर हैं लेकिन आपके पैर जमीन से उखड़ गए हैं और आप अब जमीन से उठे नहीं बल्कि पूरी तरह कट गए हैं। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि आप इससे भी ऊंची ऊंचाई पर जाएं। उन्होंने देश को आश्वस्त किया कि नए भारत के निर्माण में वे अब आगे बढ़ेंगे और उन्हें पूरे देश का और सदन में विपक्ष का सह्योग चाहिए।
 
-प्रभात झा 
(सांसद व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष- भाजपा)

जयप्रकाश नारायण की जनसभा के चंद घंटों बाद ही भारतीय आजादी के बाद का सबसे मनहूस क्षण आया जब गैरकानूनी तरीके से अपनी सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक मान-मर्यादाओं को कुचलते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया गया।

जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के एक फैसले ने देश की राजनीति में हड़कंप मचा दिया था। 1971 के लोकसभा चुनाव में राजनारायण इंदिरा गांधी के विरुद्ध रायबरेली से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे। उस चुनाव में इंदिरा गांधी पर अनियमितता के आरोप में राजनारायण द्वारा दायर याचिका पर अदालत ने न केवल इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर दिया, बल्कि उन्हें छह वर्ष तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया। उन पर चुनाव के दौरान भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को अपना इलेक्शन एजेंट बनाने, स्वामी अवैतानंद को 50,000 रुपये घूस देकर रायबरेली से ही उम्मीदवार बनाने, वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग करने, डीएम-एसपी की अवैध मदद लेने, मतदाताओं को लुभाने हेतु शराब, कंबल आदि बांटने और निर्धारित सीमा से अधिक खर्च करने जैसे तमाम आरोप लगे थे। फैसले वाले दिन इंदिरा गांधी के आवास पर राजनीतिक गतिविधियां तेज हो चुकी थीं जो भावी राजनीतिक घटनाक्रम की दिशा स्पष्ट कर रही थीं। कांग्रेसियों के जत्थे ‘जस्टिस सिन्हा-मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अदालती फैसले को सीआइए की साजिश भी बता रहे थे। शाम तक मंत्रिमंडल ने एक स्वर से उनके इस्तीफे को नकार दिया। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा देकर उस दौर में सियासी बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी थीं।
12 जून के बाद समूचा विपक्ष फिर एकजुट हुआ और न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग पर अड़ा रहा। पूरा विपक्ष राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देकर अपना विरोध दर्ज करा रहा था। देश भर के शहर, जलसे, जुलूस और विरोध प्रदर्शन के गवाह बन रहे थे। 22 जून को दिल्ली में आयोजित रैली को जेपी समेत कई अन्य बड़े नेता संबोधित करने वाले थे। शासक दल इतना भयभीत था कि उसने कोलकाता-दिल्ली के बीच की वह उड़ान ही निरस्त करा दी जिससे जेपी दिल्ली आने वाले थे। उन दिनों एक या दो उड़ानों का ही संचालन हुआ करता था।
आखिरकार 25 जून का दिन विरोध सभा के लिए तय हुआ। रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ था। मुख्य वक्ता के तौर पर जेपी जब संबोधन के लिए आए तब काफी देर तक नारेबाजी होती रही। जेपी ने स्पष्ट शब्दों में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की और जनसमर्थन के अभाव वाली सरकार के अस्तित्व को मानने से इन्कार कर दिया। सभा के चंद घंटों बाद ही भारतीय आजादी के बाद का सबसे मनहूस क्षण आया जब गैरकानूनी तरीके से अपनी सत्ता को बचाने के लिए संवैधानिक मान-मर्यादाओं को कुचलते हुए देश पर आपातकाल थोप दिया गया। सभी मूलभूत अधिकार समाप्त कर दिए गए। समाचार पत्रों पर भी पाबंदी लगा दी गई थी। विपक्षी दलों के प्रमुख नेता नजरबंद कर दिए गए। सभा, जुलूस, प्रदर्शन सभी पर रोक लगा दी गई थी। राजनीतिक बंदियों की परिवारों से मुलाकात तक पर पाबंदी लगा दी गई। अदालतें स्वयं कैद हो चुकी थीं जो जमानत लेने और देने से साफ इन्कार कर रही थीं। एक लाख से अधिक राजनेता-कार्यकर्ताओं को गिरफ्तारी के समय मानसिक-शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ीं। पुलिस हिरासत और जेलों से मौत की खबरें आ रही थीं जिन्हें समाचार पत्रों में जगह नहीं मिलती थी। यह दौर करीब ढाई साल तक चलता रहा।

 
-के.सी. त्यागी
(आपातकाल के दौरान जेल में रहे लेखक जद-यू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

देहात में एक कहावत है 'जात भी गवाई और भात भी ना मिला'। कहने का मतलब यह है कि सब कुछ गवाने के बाद भी कुछ हासिल ना होना और शायद इसी बात की अनुभूति उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव कर रहे होंगे। 23 मई 2019 से पहले तरह-तरह के दांवे करने वाले अखिलेश अपनी चुनावी हार पर चुप्पी साधे हुए हैं और उनकी सहयोगी रहीं बसपा प्रमुख मायावती उन पर हमलावर हैं। उत्तर प्रदेश में जब बुआ-बबुआ की जो़ड़ी बनी थी तब राजनीतिक पंडित यह दावा करने लगे थे कि यह जो़ड़ी कम से कम 50 सीट जीतने में कामयाब होगी। पर ऐसा हुआ नहीं। सपा-बसपा महज 15 सीट जीतने में ही कामयाब रहीं। हालांकि यह किसी ने नहीं सोचा था कि गठबंधन परिणाम आने के कुछ दिन बात ही खत्म हो जाएगा। इसकी शुरूआत मायावती ने ही कर दी। सबसे पहले तो उन्होंने उपचुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया और उसके बाद धीरे-धीरे अखिलेश और उनकी पार्टी पर हमले करने लगीं।

अखिलेश पलटवार करने की बजाए रक्षात्म रहे और शायद उनके लिए यही समय की मांग भी है। अखिलेश ने सिर्फ इतना ही कहा कि अगर रास्ते अलग-अलग हैं तो उसका भी स्वागत है। दबाव ज्यादा बना तो यह कह दिया कि इंजीनियरिंग का छात्र रहा हूं और प्रयोग करने का रिस्क उठा सकता हूं, यह अलग बात है कि आपको हर समय कामयाबी नहीं मिलती। लेकिन अखिलेश ने मायावती का नाम कभी नहीं लिया। बीते दिनों मायावती ने अखिलेश पर सबसे बड़ा हमला करते हुए उन्हें 'मुस्लिम विरोधी' करार दिया। मायावती ने कहा कि अखिलेश यादव ने उन्हें मुसलमानों को टिकट नहीं देने के लिए कहा था क्योंकि इससे धार्मिक ध्रुवीकरण होगा। इससे साफ जाहिर होता है कि मायावती अब अखिलेश पर हमलावर तो हैं ही, उनके MY समीकरण में भी सेंध लगाने की शुरूआत कर दी है। इतना ही नहीं मायावती ने कह भी कहा कि जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे, तो गैर-यादव और दलितों के साथ अन्याय हुआ था और इसीलिए उन्होंने सपा को वोट नहीं दिया। सपा ने दलितों के प्रचार का भी विरोध किया। मायावती ने सपा पर धोखा देने और बसपा का वोट काटने का भी आरोप लगाया। सपा पर हमला करते हुए मायावती ने कहा कि 10 सीटों पर बसपा की जीत पर सपा के सदस्य खुद को श्रेय देते रहे हैं, लेकिन सपा पांच सीटों पर भी जीत दर्ज नहीं कर पाती है बसपा का समर्थन नहीं होता।


अखिलेश फिलहाल राजनीति की सबसे बड़ी परीक्षा से गुजर रहे हैं। पहले तो घर में विरोध झेला। पिता और चाचा के निशाने पर रहने के बावजूद पार्टी के अध्यक्ष बन गए। विधानसभा में कांग्रेस से गठबंधन किया पर बुरी तरह हार मिली। लोकसभा चुनाव आते-आते उनकी पार्टी की धुरविरोधी रहीं मायावती से समझौता कर लिया। पर इसका उन्हें कुछ फायदा नहीं हुआ। खुद उनके भाई और पत्नी चुनाव हार गए और पार्टी को महज पांच सीटें ही मिल पाई। फिलहाल अखिलेश गठबंधन की हार के बाद निशाने पर तो है ही, पिता की बीमारी ने भी उन्हें बहुत परेशान कर रखा है। खैर यूपी की राजनीतिक इतिहास में अबतक कई गठबंधन देखने को तो मिले हैं पर सत्ता जाते या चुनाव हारते ही सबके रास्ते अगल-अलग हो जाते हैं। प्रदेश में 1989 से गठबंधन की सियासत का दौर शुरू हुआ था। तब से लेकर आज तक प्रदेश की जनता ने कई मेल−बेमल गठबंधन देखे हैं। राज्य में सपा−बसपा, भाजपा−बसपा, कांग्रेस−बसपा, रालोद−कांग्रेस जैसे अनेक गठबंधन बन चुके हैं, लेकिन आपसी स्वार्थ के चलते लगभग हर बार गठबंधन की राजनीति दम तोड़ती नजर आई। छोटे दलों की तो बात ही छोड़ दीजिए कोई भी ऐसा बड़ा दल नहीं रहा जिसने कभी न कभी इनसे गठबंधन न किया हो। मगर गठबंधन का हश्र हमेशा एक जैसा ही रहा।


फिलहाल राजनीतिक हाशिए पर खड़ी अखिलेश की पंचर साइकिल के लिए आगे का रस्ता भी कठिन होने वाला है। चाचा शिवपाल की अपनी पार्टी के जरिए सपा कैडर को लगातार तोड़ रहे हैं तो पिता मुलायम को किनारे करने को लेकर अखिलेश से यादव वोटर नाराज है। इस चुनाव में यादवों का अच्छा-खासा वोट भाजपा की तरफ भी शिफ्ट होते देखा गया। वहीं मायावती मुस्लिम वोट को लेकर पहले से ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। उधर भाजपा सरकार और संगठन के जरिए आम लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। ऐसे में सपा और अखिलेश के लिए आगे का सफर चुनौती भरा रहने वाला है। आने वाले उपचुनाव में संगठन की परीक्षा तो होगी ही पर अगले विधानसभा चुनाव तक पार्टी को मजबूती से संभाले रखना अखिलेश की सबसे बड़ी चुनौती है।   
लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली भाजपा ने यह तो सिद्ध कर ही दिया कि पार्टी में नंबर वन की भूमिका और नरेंद्र मोदी की सरकार में नंबर दो की भूमिका आखिर किसकी है क्योंकि भारत में राजनीतिक दृष्टिकोण के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और शक्तिशाली व्यक्तित्व के धनी तो सिर्फ एक ही व्यक्ति हैं। वो हैं अमित शाह। कभी नरेंद्र मोदी की सरकार में दूसरा सबसे शक्तिशाली पद राजनाथ सिंह का हुआ करता था लेकिन अब यह पद अमित शाह के पास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुमत के साथ एक बार फिर चुने गए और उन्होंने गृह विभाग का जिम्मा अपने सबसे करीबी अमित शाह को सौंपा तो रक्षा विभाग का जिम्मा उन्होंने राजनाथ सिंह को दिया। जिनकी अध्यक्षता में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने आम चुनावों में बहुमत हासिल की थी। 
 
सरकार में नंबर दो की भूमिका में रहने वाले अमित शाह फिलहाल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहेंगे। ऐसा फैसला पार्टी ने किया और वो भी इसलिए ताकी आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा एक बार फिर से अपना शानदार प्रदर्शन दोहरा सकें। भाजपा के पूरे इतिहास में अभी तक अमित शाह जैसा शक्तिशाली व्यक्ति नहीं रहा। जिसने न केवल जीत की रणनीति बनाई बल्कि कब किस विपक्षी पार्टी को कैसे मात देने है उसका पूरा खाका भी तैयार किया। शायद यही वजह है कि पार्टी ने झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में होने वाले विधानसभा चुनावों तक शाह को अध्यक्ष पद पर बने रहने की बात कहीं। हालांकि इसे हम सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरगामी सोच का नतीजा भी समक्ष सकते हैं। क्योंकि मोदी और शाह की जोड़ी ने गुजरात से शुरुआत कर आज पूरे देश में भाजपा के नाम का परचम लहराया है।
 
इतना ही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई सरकार के कामकाज की शुरुआत करते हुए 8 समितियां गठित कीं और इन सभी समितियों में अमित शाह हैं। जबकि प्रधानमंत्री खुद 6 समितियों में हैं। शाह को सौंपी गई 2 समितियां ऐसी हैं जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत तक नहीं आती हैं। उनमें से एक नौकरियों से संबंधित तो दूसरी आर्थिक ग्रोथ को बढ़ाने संबंधित समिति है। मुंबई में जन्में शाह 30वें गृहमंत्री हैं। गृहमंत्री के तौर पर अपना कामकाज संभालने के तुरंत बाद से ही अमित शाह ने मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सभी 19 विभागों का जायजा लिया और उनका कामकाज समझने का प्रयास भी किया। इतना ही नहीं ईद के दिन भी शाह ने मंत्रालय में कामकाज निपटाया। मीडिया रिपोर्ट्स में इस बात का दावा किया जा रहा है कि शाह पिछले गृहमंत्रियों की तुलना में दफ्तर में ज्यादा वक्त गुजारते हैं। इतना ही नहीं यहां तक कहा जा रहा है कि राजनाथ सिंह लंच के बाद घर चले जाते थे और घर से ही मंत्रालय का सारा काम देखते थे। जबकि शाह सुबह 9:45 में नॉर्थ ब्लॉक जाते हैं और रात 8 बजे तक वहीं से कामकाज देखते हैं। 

 

गृहमंत्रालय में इन दिनों राज्यपाल, मुख्यमंत्रियो और मंत्रियों का आना जाना लगा हुआ है। अब तक केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण कामकाज की दिशा में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाद वित्त मंत्रालय ही आता था लेकिन शाह की एनर्जी और लगातार चल रही बैठकों पर ध्यान दें तो अरुण जेटली के सरकार में न होने के बाद से गृह मंत्रालय ने सुर्खियां बटोरी हुई है। हालांकि पार्टी प्रमुख होने के नाते अमित शाह का मंत्रियों और नेताओं से मिलना तो स्वभाविक था। पिछली मोदी सरकार में गृहमंत्रालय के काम कर चुके एक ब्यूरोक्रेट बताते हैं कि यह पहली बार है गृह मंत्रालय के तहत अंतर-मंत्रालयी बैठक हो रही है। जबकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में यह बमुश्किल आयोजित होती थीं। गौरतलब है कि सालों पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल को देश के सबसे निर्णायक गृह मंत्रियों के रूप में देखा जाता था और ऐसा ही उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी ने भी पेश करने का प्रयास किया था लेकिन अब अमित शाह यह जिम्मा निभा रहे हैं।
 
शाह के समझ आने वाली चुनौतियां 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक बार फिर से अमित शाह पर भरोसा जताए जाने के बाद अब उन्हें खुद को सिद्ध करना पड़ेगा। क्योंकि अमित शाह ने खुद चुनावी रैलियों के समय कश्मीर से धारा 35ए और धारा 370 को समाप्त करने एवं राम जन्मभूमि बनाने की बात कही थी। इतना ही नहीं उन्होंने कहा था कि हमारी सरकार बनने के बाद हम एनआरसी को नए सिरे से लागू करेंगे। शाह के इन वादों के बाद देखते ही देखते चुनावों में जय श्री राम का नारा भी गूंजने लगा, जो आज ममता बनर्जी के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। बीते दिनों सामने आए वीडियो के मुताबिक ममता बनर्जी जय श्री राम का नारा सुनकर इतना आक्रोशित हो गईं कि उन्होंने नारे लगाने वालों को जेल में डालने तक की धमकी दे डाली और यह कहा कि यह गुजरात नहीं बल्कि बंगाल हैं।
 
खैर अमित शाह ने अगर खुद के द्वारा किए गए वादों को पूरा कर दिया तो वह अपने-आप ही सर्वस्वीकृत नेता बन जाएंगे। इसलिए जरूरी है कि वह अब वादों को पूरा करने की दिशा में काम करें। हालांकि उन्होंने कश्मीर में दिलचस्पी दिखाते हुए राज्यपाल सत्यपाल मलिक से कश्मीर के हालातों पर बातचीत की और प्रभावी कदम उठाने का वादा भी किया। इतना ही नहीं वह अमरनाथ यात्रा से पहले कश्मीर का दौरा भी करने वाले हैं।
 
- अनुराग गुप्ता
अनंतनाग में बुर्का पहने मोटरसाइकिल सवार दो आतंकियों ने बीच बाजार CRPF के दल पर हमला कर 5 जानें लेकर इसे जरूर स्पष्ट कर दिया है कि उन पर फिलहाल ऑपरेशन ऑल आउट का कोई असर नहीं है और वे अभी भी जहां चाहें वहां मार करने की क्षमता रखते हैं। पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले के बाद हुए सबसे बड़े आतंकी हमले ने खासकर उन अधिकारियों के पांव तले जमीं खिसकाई है जो लगातार दावा कर रहे थे कि दक्षिण कश्मीर को आतंकियों से मुक्त करवा लिया गया है। उनका दावा इस इलाके में मारे जाने वाले आतंकियों की संख्या पर निर्भर था।
 
 
इस साल अभी तक कश्मीर में मारे गए कुल 112 आतंकियों में से आधे के करीब दक्षिण कश्मीर में ही मारे गए हैं। दरअसल दक्षिण कश्मीर को आतंकवादियों का गढ़ माना जाता है। एक अधिकारी के बकौल, अमरनाथ यात्रा को क्षति पहुंचाने की खातिर आतंकी इस इलाके में एकत्र हो रहे थे। पिछले साल भी ऑपरेशन ऑल आउट का जोर दक्षिण कश्मीर में ही था। बावजूद इसके दक्षिण कश्मीर से आतंकवादियों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही। गंभीर स्थिति यह है कि इनमें अच्छी खासी संख्या में विदेशी नागरिक हैं। हालिया हमले में भी विदेशी आतंकी ही शामिल रहे थे।
 
हिज्बुल मुजाहिदीन के पोस्टर ब्वॉय बुरहान वानी की मौत के बाद से ही दक्षिण कश्मीर खासकर अनंतनाग में सुरक्षा बलों ने दबाव बनाया हुआ है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जिस दिन आतंकियों को मौत के घाट नहीं उतारा जाता पर चिंता का विषय दक्षिण कश्मीर में फैले आतंकवाद का यह है कि जितने आतंकी मरते हैं उससे आधी संख्या में नए पैदा जाते हैं और 90 प्रतिशत दक्षिण कश्मीर के दो जिलों पुलवामा और अनंतनाग के रहने वाले ही होते हैं।
 
अब सेना ने अमरनाथ यात्रा से पहले आतंकियों के खिलाफ अभियान तेज करते हुए सारा जोर लगाने का फैसला किया है। इसमें सेना व अन्य सुरक्षा बलों के अतिरिक्त वायुसेना की भी मदद लेने का निर्णय हुआ है जिसके तहत जंगलों में छुपे हुए आतंकियों को लड़ाकू हेलिकाप्टरों से मारा गिराया जाएगा।
 
ऐसे में अनंतनाग में हुए फिदायीन हमले के बाद खुफिया अधिकारियों के इस रहस्योद्घाटन के पश्चात कि अमरनाथ यात्रा इस बार आतंकी हमलों से दो-चार हो सकती है, यह यात्रा सभी के लिए अग्नि परीक्षा साबित होने जा रही है। उनके मुताबिक, कई आतंकी इसके लिए कश्मीर के भीतर घुस चुके हैं और वे यात्रा मार्गों के आसपास के इलाकों में डेरा जमाए हुए हैं। अधिकारियों का यहां तक कहना है कि आतंकी आईएस टाइप वोल्फ हमले भी कर सकते हैं।
 
दरअसल 2017 में आतंकियों ने अमरनाथ यात्रा पर हमला बोल कर 9 श्रद्धालुओं की जान ले ली थी और अब हुआ फिदायीन हमला भी ठीक वैसा ही था। ऐसे में अधिकारी कहते हैं कि हमले को देख लगता था कि यह अमरनाथ यात्रा पर हमले की प्रेक्टिस हो सकती है। दरअसल सीमा पार रची जा रही साजिशों से सुरक्षा एजेंसियों को पुख्ता संकेत मिल रहे हैं कि ऐसा हमला करने की फिर कोशिशें हो सकती हैं। ऐसे में जम्मू में भी सेना, बीएसएफ, पुलिस, सीआरपीएफ के शिविरों के आसपास भी सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है। इसके साथ ही अपने अपने स्तर पर बैठकें कर वरिष्ठ अधिकारियों ने सुरक्षा के हर पहलू पर गौर कर यहां ऐसे हमले नाकाम बनाने की रणनीति पर गौर किया।
जम्मू शहर में पहले भी आतंकी फिदायीन हमलों को अंजाम दे चुके हैं लेकिन अधिकतर हमले आतंकी सैन्य शिविरों में घुसकर ही अंजाम दिये गये हैं। ऐसे हालात में जम्मू में भी सुरक्षा बल चौकस हो गए हैं। सेना और सुरक्षा बलों की पूरी कोशिश है कि खुफिया एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय से आतंकवादियों के मसूंबे नाकाम कर दिये जाएं। यात्री निवास को अगले सप्ताह तक सीआरपीएफ अपने घेरे में ले लेगी। राज्य पुलिस भी सुरक्षा में सहयोग देगी। श्रद्धालुओं की चेकिंग, सामान की जांच का जिम्मा पुलिस पर होगा। श्रद्धालुओं को यात्रा से एक दिन पहले ही यात्री निवास में प्रवेश करने की इजाजत होगी, ताकि अधिक भीड़ न हो।
 
अमरनाथ यात्रा के शुरू होने में अब 17 दिनों का समय बचा है। सुरक्षाबल कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते इसलिए एक माह पूर्व सभी तैयारियां आरंभ तो की गई थीं पर वे अभी तक अधबीच में ही हैं। एक रहस्योदघाटन के मुताबिक, यात्रा मार्ग के आसपास के कई क्षेत्रों की साफ सफाई, उन्हें बारूदी सुरंगों तथा आतंकियों से मुक्त करवाने का अभियान अभी भी अधबीच में है। स्थिति यह है कि खुफिया अधिकारियों के रहस्योद्घाटन के बाद यात्रियों की सुरक्षा कैसे होगी, कोई नहीं जानता है और सब भोलेनाथ पर छोड़ दिया गया है।
 
-सुरेश एस डुग्गर

इससे पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव या अतिरिक्त प्रधान सचिव को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया हो। खास बात यह है कि इन दोनों अधिकारियों का कार्यकाल प्रधानमंत्री के कार्यकाल के साथ पूरा होगा।

नरेंद्र मोदी ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भले अपने मंत्रिमंडल में कुछ चौंकाने वाले परिवर्तन किये हों लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों पर उनका पुराना विश्वास बना हुआ है। यही कारण है कि नृपेंद्र मिश्रा को प्रधानमंत्री का प्रधान सचिव और पी.के. मिश्रा को अतिरिक्त प्रधान सचिव पद पर पुनः बहाल किया गया है साथ ही दोनों को कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान किया गया है। इससे पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव या अतिरिक्त प्रधान सचिव को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया हो। खास बात यह है कि इन दोनों अधिकारियों का कार्यकाल प्रधानमंत्री के कार्यकाल के साथ पूरा होगा।

दरअसल कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर प्रधानमंत्री ने दर्शाया है कि वह अपने इन दोनों अधिकारियों की ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा से कितने प्रसन्न हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री ने हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद पर अजित डोभाल को दोबारा नियुक्त करते हुए उन्हें भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान किया था। इसके अलावा पिछली सरकार में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री रहे डॉ. जितेन्द्र सिंह को दोबारा यह पद सौंपा गया है। नरेंद्र मोदी को 2019 के लोकसभा चुनावों में जो बड़ा जनादेश मिला है उसकी सफलता का श्रेय प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों, कर्मचारियों को भी जाता है जिन्होंने दिन-रात मेहनत करके सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर नजर रखी, पारदर्शिता बरतने के लिए हर संभव प्रयास किये और प्रधानमंत्री की स्वप्निल योजनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी ने अपने अधिकारियों पर जो भरोसा जताया है वह दर्शाता है कि वह अपने पुर्न निर्वाचन में प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों द्वारा किये गये कार्य का भी योगदान मानते हैं और अपने विश्वस्त अधिकारियों के सहयोग से अपनी दूसरी पारी में कुछ बड़ा करना चाहते हैं।

 
नृपेंद्र मिश्रा ट्राई के चेयरमैन रह चुके हैं और 2014 में भाजपा सरकार बनने पर जो पहली नियुक्ति हुई थी वह उन्हीं की हुई थी। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में नृपेंद्र मिश्रा के पास सदैव हर समस्या का हल मिल जाता है। साथ ही वह विभिन्न मंत्रालयों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय का समन्वय बनाये रखने में माहिर हैं। प्रधानमंत्री के अतिरिक्त प्रधान सचिव के रूप में पी.के. मिश्रा का कार्य भी उल्लेखनीय रहा है। नियुक्तियों, चयन, अफसरशाही के कार्यकलाप पर नजर रखने, सुधारों को आगे बढ़ाने के मामले में वह प्रधानमंत्री के विश्वस्त सहयोगी हैं। साथ ही आपदा के समय राहत कार्यों को लेकर कैबिनेट सचिवालय के साथ उनका जबरदस्त समन्वय रहता है।
प्रधानमंत्री ने अपनी नई सरकार में जिस तरह अधिकारियों पर विश्वास जताते हुए अजीत डोभाल, नृपेंद्र मिश्रा, पी.के मिश्रा को पुनः पद पर बहाल करते हुए उन्हें कैबिनेट रैंक दिया और पूर्व विदेश सचिव एस. जयशंकर को कैबिनेट मंत्री बनाकर विदेश जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा, उससे साफ जाहिर हो जाता है कि प्रधानमंत्री उत्कृष्ट कार्य करने वालों को पद और सम्मान दोनों देते हैं। अफसरशाही में इससे एक सकारात्मक संदेश गया है।
 
-नीरज कुमार दुबे

वायनाड से चुनाव जीतने के बाद राहुल शुक्रवार को तीन दिन के दौरे पर केरल पहुंचे
राहुल गांधी ने शनिवार को वायनाड में रोड शो किया, 15 स्थानों पर स्वागत समारोह
राहुल ने कहा- वायनाड के सभी धर्म और जाति के नागरिकों के लिए मेरे दरवाजे खुले
तिरुवनंतपुरम. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केरल दौरे के दूसरे दिन शनिवार को अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में रोड शो किया। वे मतदाताओं का आभार जताने के लिए तीन दिवसीय दौरे पर केरल गए हैं। रोड शो के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा। राहुल ने कहा कि मोदी जहर का इस्तेमाल करते हैं और हम राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। वे नफरत, गुस्से और लोगों को बांटने की राजनीति करते हैं। चुनाव जीतने के लिए झूठ बोलते हैं।
राहुल ने कहा, ''मैं कांग्रेस से हूं और जाति-धर्म और विचारधारा से इतर वायनाड के हर व्यक्ति के लिए मेरे दरवाजे हमेशा खुले हुए हैं। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पार्टी से हैं। आपने मुझे समर्थन दिया, यह अद्वितीय है। मौजूदा केंद्र सरकार और मोदी देश में नफरत फैला रहे हैं। कांग्रेस जानती है कि इससे निपटने का एकमात्र रास्ता प्यार है। हम देश में कमजोरों को मोदी की नीतियों से बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मैं आपका प्रतिनिधित्व करने और बेहतर वायनाड बनाने के लिए तैयार हूं।''
'वायनाड की आवाज बुलंद करना मेरा कर्तव्य'
कांग्रेस अध्यक्ष ने शुक्रवार को मल्लापुरम में रोड शो के बाद जनसभा को संबोधित किया था। उन्होंने कहा कि मैं केरल का सांसद हूं। यह मेरी जिम्मेदारी है कि न सिर्फ वायनाड बल्कि पूरे केरल के नागरिकों से जुड़े मुद्दों को आवाज दूं। वायनाड के लोगों की आवाज सुनना और उनकी आवाज बनना मेरा कर्तव्य है। आप सभी के प्रेम और स्नेह का धन्यवाद, जो आपने मेरे लिए दिखाया।
राहुल ने केरल और उप्र से लड़ा था चुनाव
राहुल ने केरल और उत्तरप्रदेश की दो सीटों पर चुनाव लड़ा था। अमेठी में उन्हें स्मृति ईरानी से हार मिली, जबकि वायनाड में राहुल 4 लाख 31 हजार से ज्यादा वोट से जीते थे। वायनाड से जीतने के बाद राहुल का केरल का यह पहला दौरा है। वे रविवार तक केरल में अलग-अलग कार्यक्रमों में शामिल होंगे।
किसानों की खुदकुशी पर मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था
जीत के बाद राहुल ने 24 मई को वायनाड की जनता का आभार जताया था। इसके बाद 31 मई को उन्होंने मुख्यमंत्री पिनरई विजयन को पत्र लिखकर वायनाड में कर्ज की वजह से खुदकुशी करने वाले किसानों की जानकारी मांगी थी। उन्होंने सरकार से आग्रह किया था किसानों के परिवार की आर्थिक मदद का दायरा बढ़ाया जाए।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी के 52 सांसद इंच इंच की लड़ाई लड़ेंगे लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी की चुनावी संभावनाओं को फीट-फीट गड्ढा खोद कर दफन करने में लगे हुए हैं।

लोकसभा चुनावों के परिणाम आये हुए लगभग दो सप्ताह हो चले हैं लेकिन विपक्ष में मची आपसी खींचतान कम होने का नाम नहीं ले रही है। 2019 के जनादेश ने पहले कांग्रेस के अरमानों पर बुरी तरह पानी फेर दिया तो अब कांग्रेस के अपने लोग पार्टी को खत्म करने में लगे हुए हैं। विभिन्न राज्यों से जिस तरह पार्टी में उठापटक की खबरें आ रही हैं वह निश्चित रूप से कांग्रेस आलाकमान के लिए बेचैन कर देने वाली हैं। मुश्किल समय में पार्टी को जिस तरह अपने ही लोग झटका दे रहे हैं उसने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का भविष्य खतरे में डाल दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी के 52 सांसद इंच इंच की लड़ाई लड़ेंगे लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी की चुनावी संभावनाओं को फीट-फीट गड्ढा खोद कर दफन करने में लगे हुए हैं।

 
राज्य दर राज्य देखते जाइये, कांग्रेस में मची खलबली सामने आती चली जायेगी। तेलंगाना में पार्टी के 18 विधायकों में से दो-तिहाई यानि 12 विधायकों ने राज्य में सत्तारुढ़ टीआरएस में अपने समूह के विलय का स्पीकर से अनुरोध किया जोकि स्वीकार कर लिया गया है। कांग्रेस ने इसे दिन दहाड़े लोकतंत्र की हत्या करार देते हुए कहा है कि यह देश के लिए स्वस्थ परिपाटी नहीं है और यह जनादेश की हत्या है जिसके लिए तेलंगाना की जनता कभी माफ नहीं करेगी। खबर है कि तेलंगाना में कांग्रेस के एक और विधायक टीआरएस में जा सकते हैं। वहीं दूसरी ओर पंजाब में भले कांग्रेस की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार हो लेकिन वहां नेतृत्व को लगातार चुनौती मिल रही है। राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच चल रही खींचातानी और सार्वजनिक रूप से हो रही बयानबाजी ने पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के भीतर असंतोष के स्वर उभरे हैं, यही नहीं गुजरात कांग्रेस में भी बेचैनी दिखायी दे रही है।
 
 
पंजाब की बात करें तो नवजोत सिंह सिद्धू कैबिनेट की बैठक से दूर रहते हुए कह रहे हैं कि ‘‘उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।’’ दरअसल सिद्धू हालिया लोकसभा चुनाव में पंजाब के शहरी इलाकों में कांग्रेस के ‘‘खराब प्रदर्शन’’ को लेकर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की नाराजगी का सामना कर रहे हैं। यही कारण रहा कि मुख्यमंत्री ने उनका विभाग बदल दिया। हरियाणा को देखें तो वहां विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने का समय बचा है, ऐसे में कांग्रेस के अंदर जिस तरह की उठापटक है वह पार्टी के भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित होगी। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के प्रति निष्ठा रखने वाले कुछ विधायकों ने लोकसभा चुनाव में प्रदेश में पार्टी के खराब प्रदर्शन को लेकर प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को निशाने पर लिया है, जिस पर तंवर ने गुस्से में कहा, ‘‘अगर आप मुझे खत्म करना चाहते हैं तो मुझे गोली मार दीजिए।’’ दरअसल पार्टी के हरियाणा प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने नयी दिल्ली में एक बैठक बुलाई थी। उस बैठक में मौजूद पार्टी के एक नेता ने दावा किया कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के करीबी विधायकों ने अशोक तंवर को निशाना बनाया।
 
यही नहीं कांग्रेस की राजस्थान इकाई में भी असंतोष के स्वर सुनने को मिल रहे हैं, जहां लोकसभा आम चुनाव में पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच कथित तौर पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया है। इस बयानबाजी पर पार्टी आलाकमान ने नाराजगी जताई है और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बोलने वाले विधायक को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे ने पार्टी के लोगों को अनावश्यक बयानबाजी से बचने की सख्त हिदायत दी है।
 
 
आपसी मनमुटाव की खबरें मध्य प्रदेश से भी आ रही हैं, जहां सत्तारुढ़ कांग्रेस अपने विधायकों को एकजुट रखने और सत्ता में बने रहने के लिए मशक्कत करती नजर आ रही है। राज्य में कांग्रेस नीत सरकार को बसपा और निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त है। उधर, गुजरात कांग्रेस में भी बेचैनी बढ़ रही है। दरअसल, राज्य में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि पार्टी के कुछ विधायक जल्द ही भाजपा का दामन थाम सकते हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल के विधायक पद से इस्तीफे के बाद से महाराष्ट्र कांग्रेस के अंदर भी अनबन की खबरें आ रही हैं। ऐसी अटकलें हैं कि वह भाजपा में शामिल हो सकते हैं। इसके अलावा हाल ही में कर्नाटक में सत्तारुढ़ कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन सरकार के कुछ विधायकों के भाजपा से हाथ मिलाने की खबरें आने के बाद सरकार की स्थिरता के लिए गठबंधन को परेशानी का सामना करना पड़ा। 
 
मतभेद और आरोप-प्रत्यारोप ने सिर्फ कांग्रेस के भीतर घमासान मचाया हो, ऐसा नहीं है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत के सदमे से अन्य विपक्षी पार्टियां भी अभी तक उबर नहीं पायी हैं। इसके चलते विपक्षी गठबंधन में जहां टूट के संकेत मिल रहे हैं वहीं अधिकतर पार्टियों में आपसी मतभेद और इस्तीफों का दौर देखने को मिल रहा है। अधिकतर गैर-राजग दलों के अंदर गहमागहमी बढ़ती जा रही है क्योंकि नेता एवं कार्यकर्ता अशांत और तनावग्रस्त नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का ‘महागठबंधन’ भारत के सबसे बड़े राज्य में भाजपा के प्रभुत्व का पहला शिकार बना। बसपा प्रमुख मायावती ने गठबंधन तोड़ते हुए हार के लिये ‘‘निष्प्रभावी’’ सपा पर आरोप लगाया। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने वस्तुत: स्वीकार किया कि ‘‘प्रयोग’’ असफल रहा। 
 
कर्नाटक में जनता दल (एस) भी इस तपिश को महसूस कर रहा है क्योंकि कांग्रेस और जनता दल (एस) के दावों के बावजूद प्रदेश प्रमुख ए.एच. विश्वनाथ सत्तारुढ़ गठबंधन में संकट का हवाला देकर पार्टी छोड़ दी है। वहां गठबंधन में फूट उभर रही है और कई नेता कर्नाटक में भाजपा के पाले में जाने को तैयार हैं। ये घटनाक्रम दर्शाता है कि एक साल पुरानी एच.डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली सरकार की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रहीं जबकि सत्तारुढ़ दल कैबिनेट विस्तार और मंत्रियों के विभागों में फेरबदल करके सरकार को बचाने की कोशिशों में लगा हुआ है।

पश्चिम बंगाल में भी लोकसभा चुनाव के नतीजे उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं क्योंकि तृणमूल कांग्रेस के दो विधायकों सहित पार्टी के कई नेता भाजपा के साथ हाथ मिलाने वाले हैं। पूर्वी राज्य में 18 सीटें जीतकर आक्रामक भाजपा दावा कर रही है कि ममता बनर्जी की पार्टी के कई नेता भाजपा में शामिल होने को तैयार हैं। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के 50 से ज्यादा पार्षद भी भाजपा में शामिल हो गये थे। भाजपा का दावा है कि तृणमूल कांग्रेस के कई विधायक उसके संपर्क में हैं और ममता बनर्जी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगी।
 
बहरहाल, मोदी सुनामी से विपक्षी दलों के जो तंबू उखड़े हैं उन्हें विपक्ष कितनी जल्दी समेट पाता है यह देखने वाली बात होगी। चूँकि इस वर्ष चार महत्वपूर्ण राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं ऐसे में विपक्ष का जल्दी ही संभलना होगा।
 
-नीरज कुमार दुबे

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