राजनीति

राजनीति (6670)

विश्व के सभी देशों में उसके नागरिकों के मन में अपने देश के प्रति असीम प्यार की भावना समाहित रहती है। यही भावना उस देश की मतबूती का आधार भी होता है। जिस देश में यह भाव समाप्त हो जाता है, उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह देश या तो मृत प्राय: है या समाप्त होने की ओर कदम बढ़ा चुका है। हम यह भी जानते हैं कि जो देश वर्तमान के मोहजाल में अपने स्वर्णिम अतीत को विस्मृत कर देता है, उसका अपना खुद का कोई अस्तित्व नहीं रहता। इसलिए प्रत्येक देश के नागरिक को कम से कम अपने देश के बारे में मन से जुड़ाव रखना चाहिए। इजराइल के बारे में कहा जाता है कि वहां का प्रत्येक नागरिक अपने लिए तो जीता ही है, लेकिन सबसे पहले अपने देश के लिए जीता है। इजराइल में हर व्यक्ति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि देश के हिसाब से अपने आपको तैयार करे। इजराइल का हर व्यक्ति एक सैनिक है, उसे सैनिक का पूरा प्रशिक्षण लेना भी अनिवार्य है। यह उदाहरण एक जिम्मेदार नागरिक होने का बोध कराता है। इसी प्रकार विश्व के सभी देशों में राजनीतिक नजरिया केवल देश हित की बात को ही प्राथमिकता देता हुआ दिखाई देता है। वहां देश के काम को प्राथमिकता के तौर पर लिया जाता है। अपने स्वयं के काम को बाद में स्थान दिया जाता है।
 
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश माना जाता है। यहां के राजनेता मात्र जनता के प्रतिनिधि होते हैं। ऐसे में जनता को भी यह समझना चाहिए कि हम ही भारत की असली सरकार हैं। असली सरकार होने के मायने निकाले जाएं तो यह प्रमाणित होता है कि राजनेताओं से अधिक यहां जनता की जिम्मेदारियां कुछ ज्यादा ही हैं। लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ यही है कि जनता को अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना चाहिए। अगर जनता सजग और सक्रिय नहीं रही तो राजनेता देश का क्या कर सकते हैं, यह हम सभी के सामने है।
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जिस परिवर्तन की प्रतीक्षा की जा रही थी, उसके बारे में उस समय के नेताओं ने भी गंभीरता पूर्वक चिन्तन किया, लेकिन देश में कुछ राजनेता ऐसे भी हुए जो केवल दिखावे के लिए भारतीय थे, परंतु उनकी मानसिकता पूरी तरह से अंग्रेजों की नीतियों का ही समर्थन करती हुई दिखाई देती थीं। अंग्रेजों का एक ही सिद्धांत रहा कि भारतीय समाज में फूट डालो और राज करो। वर्तमान में भारतीय राजनीति का भी कमोवेश यही चरित्र दिखाई देता है। आज भारतीय समाज में आपस में जो विरोधाभास दिखाई देता है, उसके पीछे केवल अंग्रेजों की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। इस सबके लिए हम भी कहीं न कहीं दोषी हैं। हमने अपने अंदर की भारतीयता को समाप्त कर दिया। स्व-केन्द्रित जीवन जीने की चाहत में हमने देश हित का त्याग कर दिया।
 
वर्तमान में भारतीय समाज में केवल पैसे को प्रधानता देने का व्यवहार दिखाई देता है। हमें यह बात समझना चाहिए कि केवल पैसा ही सब कुछ नहीं होता, जबकि आज केवल पैसा ही सब कुछ माना जा रहा है। इस सबके पीछे कहीं न कहीं हमारी शिक्षा पद्धति का भी दोष है। जहां केवल किताबी ज्ञान तो मिल जाता है, लेकिन भारतीयता क्या है, इसका बोध नहीं कराया जाता। इसके लिए एक बड़ा ही शानदार उदाहरण है, जो मेरे साथ हुआ। मैं एक बार जिज्ञासा लिए कुछ परिवारों में गया। उस परिवार के बालकों से प्राय: एक ही सवाल पूछा कि आप बड़े होकर क्या बनना चाहोगे। इसके जवाब में अधिकतर बच्चों ने मिलते जुलते उत्तर दिए। किसी ने कहा कि मैं चिकित्सक बनूंगा तो किसी ने इंजीनियर बनने की इच्छा बताई। इसके बाद मैंने पूछा कि यह बनकर क्या करोगे तो उन्होंने कहा कि मैं खूब पैसे कमाऊंगा। लेकिन एक परिवार ऐसा भी था, जहां बच्चे के उत्तर को सुनकर मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। उस बच्चे ने कहा कि मैं पहले देश भक्त बनूंगा और बाद में कोई और। मैं कमाई भी करूंगा तो देश के लिए और इसके लिए लोगों को भी प्रेरणा दूंगा कि आप भी देश के लिए कुछ काम करें। एक छोटे से बालक का यह चिन्तन वास्तव में जिम्मेदारी का अहसास कराता है। लेकिन क्या हम केवल एक बालक की सोच के आधार पर ही मजबूत देश का ताना बाना बुन सकते हैं। कदाचित नहीं। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हम जो भी काम कर रहे हैं, उससे मेरे अपने देश का कितना भला हो रहा है।
हमारा देश लोकतांत्रिक है। इस नाते इस देश के लोक को ही देश बनाने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा। देश में होने वाले चुनावों में हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए, इसका गंभीरता से चिन्तन भी करना चाहिए। हम जैसा देश बनाना चाहते हैं, वैसे ही उम्मीदवारों को प्रतिनिधि के तौर पर चुनना हमारा नैतिक कर्तव्य है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए ऐसा करना जरूरी है। मतदान करना हमारा नैतिक कर्तव्य है आप सभी अपना मतदान करें और सही सरकार चुनें ताकि देश भ्रष्टाचार रहित हो।
 
भारत देश का एक इतिहास है कि आम लोगों में से ही कुछ लोग ही अपना मतदान करते हैं। पढ़े लिखे नागरिक संपन्न लोग मतदान करना ही नहीं चाहते हैं। इनके मतदान नहीं करने से ही देश में भ्रष्टाचार का जन्म होता है। अनपढ़ नागरिक अपना काम देहाड़ी छोड़ कर आते हैं और मतदान करते हैं। हाँ यह जरूर है कि इनको नहीं पता की सही उम्मीदवार को वोट दिया है या गलत, इन्हें बस इतना पता होता है कि हम ने वोट दिया है। हमको मतदान करते समय इस बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि हम अपने लिए सरकार बनाने जा रहे हैं। इसलिए स्वच्छ छवि वाले और देश हित में काम करने वाली सरकार को बनाना भी हम सबका नैतिक कर्तव्य है।
 
देश में राजनीति के प्रति लोगों की उदासीनता को देखते हुए देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाये जाने का संकल्प लिया गया है। पर क्या मात्र इस कदम से देश में मतदाताओं में कोई जागरूकता आने वाली है ? शायद नहीं क्योंकि हम भारत के लोग कभी भी किसी बात को संजीदगी से तब तक नहीं लेते हैं जब तक पानी सर से ऊपर नहीं हो जाता है। आज के समय में हर व्यक्ति सरकारों को कोसते हुए मिल जायेगा, पर जब सरकार चुनने का समय आता है तो हम घरों में कैद होकर रह जाते हैं। आज अगर कहीं पर कोई अनियमितता है तो वह केवल इसलिए है कि हम उसके प्रति उदासीन हैं। अगर हम अपने मतदान का प्रयोग करना सीख जाएँ तो समाज से खऱाब लोगों का चुन कर आना काफी हद तक कम हो सकता है। वास्तव में आज देश के मतदाताओं के लिए मतदान अनिवार्य किया जाना चाहिए। बिना किसी ठोस कारण के कोई मतदान नहीं करें तो उसे दंड देना चाहिए और संभव हो तो उसका मताधिकार भी छीन लेना चाहिए।
 
-सुरेश हिन्दुस्थानी
सन 1947 के बाद हमारा देश पहली बार वास्तविक अर्थों में आपातजनक हालातों के दौर से गुजर रहा है। हालांकि सन् 1975 में तत्कालीन कांग्रेसी केन्द्र-सरकार की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपात शासन लागू कर देश के लोकतंत्र को बंधक बना लिया था, तथापि जिन हालातों के आधार पर उन्होंने आपात की घोषणा की थी वो वास्तव में आपातजनक थे नहीं। उन्होंने तो निजी स्वार्थ के वशीभूत हो कर प्रधानमंत्री-पद पर बलात ही बने रहने के लिए आपात शासन लागू करने के सांवैधानिक अधिकार का नाजायज इस्तेमाल किया था। मालूम हो कि इन्दिरा गांधी ने भारतीय संविधान के जिस अनुच्छेद 352 में किए गए प्रावधान के सहारे देश पर आपात-शासन थोप दिया था, उसमें साफ-साफ यह उल्लेख है कि “यदि राष्ट्रपति आश्वस्त हों कि देश में ऐसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे आन्तरिक उपद्रव या गृह-युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण के रूप में भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, तब वे इसकी उद्घोषणा कर के आपात शासन की अधिसूचना जारी कर सकते हैं।'' किन्तु, सन् 1975 में देश के भीतर ऐसी स्थिति तनिक भी नहीं थी, बल्कि अलबत्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से सिर्फ इन्दिरा गांधी की कुर्सी के समक्ष खतरा अवश्य उत्त्पन्न हो गया था।
उल्लेखनीय है कि सन् 1975 जून में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के संसदीय-चुनाव को कदाचार-युक्त प्रमाणित करते हुए संसद की उनकी सदस्यता को अवैध घोषित कर उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (7) के तहत आगामी छह वर्षों तक कोई भी निर्वाचित पद ग्रहण करने के अयोग्य करार दे दिया था। जाहिर है, ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर इन्दिरा का बने रहना मुश्किल हो गया था। पहले से ही भ्रष्टाचार के कई मामलों में विपक्षी दलों के विरोध और अपनी ही कांग्रेस के भीतर प्रतिद्वंद्वी नेताओं का असहयोग झेल रही इन्दिरा के खिलाफ देश भर में आक्रोश-असंतोष फूट पड़ा था। उनसे इस्तीफा मांगा जाने लगा था तब तत्कालीन कांग्रेस-अध्यक्ष दयाकान्त बरुवा ने वंशवाद की चापलुसी के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए जिस नेहरु-पुत्री की खिदमत में ‘इन्दिरा इज इण्डिया व इण्डिया इज इन्दिरा’ का नारा उछाल रखा था, उस इन्दिरा की कांग्रेस व कांग्रेस की इन्दिरा ने इस्तीफा देने के बजाय उनके विरुद्ध फैसला देने वाले न्यायालय सहित समस्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं का ही गला घोंट देने के लिए 25 जून 1975 की आधी रात को आपात-शासन की घोषणा कर अगले कुछ ही दिनों के अन्दर तमाम विरोधियों-विपक्षियों को कारागार में डालवा कर प्रेस-मीडिया को भी प्रतिबन्धित कर किस-किस तरह से अपनी अवैध सत्ता का आतंक बरपाया वो पूरी दुनिया जानती है। उस आपात शासन का अनुचित औचित्य सिद्ध करने वाली आपात-स्थिति सिर्फ इतनी ही और सिर्फ यही थी। सिवाय इसके, न आतंकी वारदातों की व्याप्ति थी, न देश की सम्प्रभुता को कोई चुनौती; न तख्ता-पलट का कोई गुप्त षड्यंत्रकरी सरंजाम था, न प्रायोजित झूठी खबरों-अफवाहों का भड़काऊ अभियान; न विदेशी शक्तियों से देशी गद्दारों के गठजोड़ का आलम था और न ही केन्द्रीय संस्थाओं के विरुद्ध प्रान्तीय सरकारों का बगावती उल्लंघन। सेना पर अविश्वास-आरोप की छिरोरी और प्रधानमंत्री पर सरेआम कीचड़ उछालने की सीनाजोरी तो थी ही नहीं।
किन्तु आज ? अपना देश जब पाकिस्तानी हिंसक आतंकी दहशतगर्दी से जूझ रहा है और उससे निजात दिलाने के वास्ते हमारी सेना के जवान जब सैन्य अभियान चला रहे हैं, तब केन्द्र-सरकार के फैसलों पर अनाप-शनाप बे-सिर-पैर के सवाल उठाते हुए पूरा प्रतिपक्ष न केवल सेना को कठघरे में खड़ा करने को उतावला है, बल्कि स्वयं भी पाकिस्तान की तरफदारी में उतर आया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगामी चुनाव के राजनीतिक समर में हराने के लिए भाजपा-विरोधी विपक्षी दलों के गिरोह ने सामरिक राजनीति का भारत-विरोधी मोर्चा खोल शत्रु-देश-पाकिस्तान के हुक्मरानों व आतंकियों से हाथ मिला रखा है। पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकियों के पुलवामा हमला के कुछ ही दिनों बाद कतिपय विपक्षी नेताओं द्वारा यह कहना कि नरेन्द्र मोदी ने ही चुनाव जीतने के लिए उसे अंजाम दिलाया और अब अनेक माध्यमों से पूर्व की घटनाओं के तार जोड़ कर यह खुलासा होना कि कांग्रेस ने मोदी को हराने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू व मणिशंकर अय्यर के मार्फत पाकिस्तानी हुक्मरानों से सांठ-गांठ कर के इसे अंजाम दिलाया; ये दोनों ही कांग्रेसी कथ्य व कृत्य महज आरोप-प्रत्यारोप के सामान्य उदाहरण मात्र नहीं हैं, अपितु एक निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने वाले असामान्य अपराध हैं, जिसे राज-द्रोह भी कहा जा सकता है और राष्ट्र-द्रोह भी।
 
पुलवामा हमले के प्रतिशोध-स्वरूप पाक-प्रायोजित आतंकवाद को मिटाने के लिए भारतीय सेना द्वारा किये गए हवाई हमले के बाद विपक्षियों की ओर से उक्त सैन्य-कार्रवाई पर सवाल खड़ा करने और भारत-सरकार के प्रधानमंत्री को श्रेयहीन करने का वह ‘द्रोह-राग’ लगातार तेज होता जा रहा है। सत्ताधारी भाजपा-मोदी के विरुद्ध कांग्रेस के संरक्षण-समर्थन में देश भर के 21 विरोधी-विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा भारतीय सेना व भारत सरकार के विरुद्ध आम जनता को बरगलाने-भड़काने और दुनिया भर में भारत की कूटनीतिक छवि को खराब करने की जो कोशिशें की जा रही हैं, वह कोई सामान्य राजनीतिक संवाद अथवा लोकतांत्रिक वाद-विवाद नहीं हैं, बल्कि ये तो आपात-स्थिति के हालात हैं। क्योंकि, विपक्षी दलों के नेताओं की ऐसी कारगुजारियों के हवाले से शत्रु-पाकिस्तान दुनिया भर में भारत का पक्ष कमजोर करने और स्वयं को निर्दोष प्रमाणित करने के दुष्प्रचार में जुट गया है, तो जाहिर है ये हालात अंततः भारत राष्ट्र की सुरक्षा व अखण्डता को कमजोर करने में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
मालूम हो कि आपात के ये हालात पुलवामा हमले के बाद ही उत्त्पन्न नहीं हुए हैं, बल्कि पहले से ही नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेसियों, कम्युनिष्टों और उनके चट्टे-बट्टे सपा-बसपा-राजद-तृमूकां-तेदेपा-आआपा आदि दलों के भ्रष्ट-बिकाऊ नेताओं का मोदी-विरोध मोदी जी की सदाशयता-सहिष्णुता के कारण बढ़ते-बढ़ते कानून-व्यवस्थाओं व सांवैधानिक व्यवस्थाओं के भी विरोध का रूप लेता हुआ अब इस तरह से भारत-विरोध में तब्दील हो चुका है। जे०एन०यु० में आतंकियों के समर्थन व भारत-विखण्डन का नारा लगाने वालों के विरुद्ध न्यायालय में सुपुर्द आरोप-पत्र के बावजूद दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना एवं मोदी-भाजपा-विरोधी महागठबन्धन के नेताओं का उन देशद्रोहियों के पक्ष में खड़ा होते रहना तथा सारदा-घोटाला मामले में बंगाल-पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने कोलकाता गए सीबीआई अधिकारी को वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गिरफ्तार करा लेना और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े राफेल विमान-खरीद मामले में बेवजह टांग अड़ाते हुए कांग्रेस-अध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को बिना किसी आधार के ही ‘चोर’ कहते रहना एवं कश्मीरी अलगाववादियों-आतंकियों के समर्थन में बयानबाजी करना या प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचने वालों का राजनीतिक बचाव करना अथवा प्रचण्ड बहुमत-प्राप्त प्रधानमंत्री-मोदी के विरुद्ध देश भर में काल्पनिक डर व असहिष्णुता का वातावरण बनाने हेतु कतिपय पत्रकारों-साहित्यकारों-कलाकारों द्वारा साजिशपूर्वक सरकारी पुरस्कार-सम्मान वापस करना-करवाना और ऐसी तमाम अवांछनीयताओं को अंजाम देने वालों के तथाकथित महागठबन्धन द्वारा अब एकबारगी पाकिस्तान की ही तरफदारी करने लगना वास्तव में आपात-शासन लागू करने के पर्याप्त कारण बनाने वाले हालात प्रतीत होते हैं।
 


बावजूद इसके, पर्याप्त कारण के बिना ही महज स्वयं की राजनीतिक सुरक्षा-महत्वाकांक्षा के लिए इन्दिरा-कांग्रेस द्वारा देश के निरापद हालातों में भी जनता पर आपात-शासन थोप दिए जाने का दंश झेल चुके होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ऐसे आपद हालातों से देश को उबारने का वह संविधान-प्रदत उपचार-अधिकार (अनुच्छेद-352) आजमाने की बजाय चुपचाप आम-चुनाव की तैयारी में ‘बूथ मजबूत’ करते-कराते हुए देखे जा रहे हैं, तो यह लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा व लोकतांत्रिक आदर्शवादिता के प्रति उनकी आस्था की पराकाष्ठा है। और, साथ ही इन्दिरा-कांग्रेस के उस अनुचित आपात-शासन से देश को उबार कर लोकतंत्र को नवजीवन प्रदान करने में सर्वाधिक मुखर भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से संस्कारित उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा की परीक्षा भी है और उसका परिणाम भी। अन्यथा, कभी देश बचाने तो कभी संविधान की रक्षा करने के नाम पर कोतवाल को ही डांटते रहने वाले ये तमाम चोर बिना किसी दलील-अपील-वकील के ही कारागारों में सड़ रहे होते और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ऐसे खर-पतवारों के प्रदूषण से मुक्त हो चुका होता।
   
-मनोज ज्वाला

पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों और उसके आकाओं पर कार्रवाई के लिए बढ़ते जा रहे भारत के दबाव का असर दिखने लगा है और गत सप्ताह कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। संयुक्त राष्ट्र ने 2008 के मुंबई आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड और जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद की वह अपील खारिज कर दी जिसमें उसने प्रतिबंधित आतंकवादियों की सूची से अपना नाम हटाने की गुहार लगाई थी। खास बात यह है कि यह फैसला ऐसे समय में आया है जब संयुक्त राष्ट्र की 1267 प्रतिबंध समिति को जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने का एक नया अनुरोध प्राप्त हुआ है। हाफिज सईद जोकि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का भी सह-संस्थापक है, की अपील संयुक्त राष्ट्र ने तब खारिज की जब भारत ने उसकी गतिविधियों के बारे में विस्तृत साक्ष्य मुहैया कराए। साक्ष्यों में ‘‘अत्यंत गोपनीय सूचनाएं’’ भी शामिल थीं। 

क्यों लगी थी पाबंदी ?
 
संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित जमात-उद-दावा के मुखिया सईद पर 10 दिसंबर 2008 को पाबंदी लगाई थी। मुंबई हमलों के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उसे प्रतिबंधित किया था। मुंबई हमलों में 166 लोग मारे गए थे। सईद ने 2017 में लाहौर स्थित कानूनी फर्म ‘मिर्जा एंड मिर्जा’ के जरिए संयुक्त राष्ट्र में एक अपील दाखिल कर पाबंदी खत्म करने की गुहार लगाई थी। अपील दाखिल करते वक्त वह पाकिस्तान में नजरबंद था।
 

 

प्रतिबंध के मायने क्या ?
 
1267 समिति द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने पर इसके तीन प्रमुख परिणाम होते हैं। इसके तहत संपत्ति के इस्तेमाल पर रोक लगा दी जाती है, यात्रा प्रतिबंध लागू कर दिया जाता है और हथियारों की खरीद पर पाबंदी लगा दी जाती है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए इन पर अमल करना बाध्यकारी होता है। समिति इन प्रतिबंध उपायों पर अमल की निगरानी करती है। वह प्रतिबंध सूची में किसी का नाम डालने या किसी का नाम हटाने पर भी विचार करती है। भारत के साथ-साथ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे उन देशों ने भी सईद के अनुरोध का विरोध किया जिन्होंने मूल रूप से उसे प्रतिबंध सूची में डाला था। चौंकाने वाली बात यह रही कि पाकिस्तान ने सईद की अपील का कोई विरोध नहीं किया।
 

 

 
पाकिस्तान का नया पैंतरा
 
भारत सरकार के प्रयासों के बाद पाकिस्तान पर आतंक के आकाओं पर सख्त कार्रवाई का जो अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहा है यह उसी का असर भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में अधिकारियों ने हाफिज सईद की अगुवाई वाले आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा का लाहौर स्थित मुख्यालय और इसकी कथित परमार्थ शाखा फलह-ए-इंसानियत फाउंडेशन के मुख्यालय को भी इस सप्ताह सील कर दिया है तथा 120 से अधिक संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार कर लिया है। पाकिस्तान पंजाब के गृह विभाग ने गुरुवार को जारी बयान में कहा, 'सरकार प्रांत में प्रतिबंधित संगठनों की मस्जिदों, मदरसों और अन्य संस्थाओं का नियंत्रण अपने हाथों में ले रही है। बयान के मुताबिक, ‘‘हमने प्रतिबंधित संगठनों के खिलाफ कार्रवाई तेज कर दी है।’’ लेकिन पाकिस्तान सरकार की इस कार्रवाई पर शक भी होता है क्योंकि जब प्रशासन एवं पुलिस के अधिकारी इमारत का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए वहां पहुंचे तो सईद और उनके समर्थकों ने कोई विरोध नहीं किया। अपने समर्थकों के साथ सईद जौहर टाउन स्थित अपने आवास के लिए रवाना हो गया।
 
खुतबा पढ़ने से रोका
 
पाकिस्तानी पंजाब प्रांत की सरकार ने हाफिज सईद पर सख्ती का एक और उदाहरण प्रस्तुत किया है। दरअसल इस शुक्रवार को राज्य सरकार ने लाहौर में जमात उद दावा मुख्यालय में हाफिज सईद को खुतबा पढ़ने से रोक दिया जहां सरकार की तरफ से नियुक्त मौलाना ने नमाज पढ़वाई और साप्ताहिक खुतबा पढ़ा। करीब दो दशक पहले जेयूडी के मुख्यालय जामिया मस्जिद अल कदासिया की स्थापना के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि सरकार की तरफ से नियुक्त मौलाना ने जुम्मे के दिन खुतबा पढ़ा हो। मस्जिद कदासिया जब पंजाब सरकार के नियंत्रण में था तब भी सईद को शुक्रवार को खुतबा पढ़ने से नहीं रोका गया था।
जेयूडी परिसर के आसपास शुक्रवार की सुबह से ही भारी संख्या में पुलिस बल तैनात था। सरकार की कार्रवाई से पहले काफी संख्या में लोग सईद का खुतबा सुनने के लिए हर शुक्रवार को मस्जिद में इकट्ठा होते थे जिनमें अधिकतर जेयूडी के कार्यकर्ता और इससे सहानुभूति रखने वाले होते थे।
 
पोल खोल
 
अब पाकिस्तान सरकार यह सब कार्रवाई करने का जो ढोंग कर रही है उसकी पोल खोलते हैं। दरअसल पाकिस्तान की प्रतिबंधित आतंकवादी समूहों के खिलाफ की गई हालिया कार्रवाई महज एक "दिखावा" है ताकि वह अपनी धरती से हुए बड़े आतंकवादी हमलों को लेकर पश्चिमी देशों को संतुष्ट कर सके। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की खबरें देने वाली अमेरिका स्थित एक समाचार वेबसाइट ने यह जानकारी दी है। पाकिस्तान ने मंगलवार को कहा था कि उसने अपने यहां सक्रिय आतंकवादी संगठनों पर लगाम लगाने को लेकर वैश्विक समुदाय की ओर से बढ़ते दबाव के बीच जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर के बेटे और भाई समेत प्रतिबंधित संगठन के 44 सदस्यों को ‘‘एहतियात के तौर पर हिरासत’’ में लिया है। इस्लामाबाद ने यह भी कहा था कि वह प्रतिबंधित आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा के मुखौटा संगठन जमात-उद-दावा से जुड़े सभी संस्थानों को बंद कर रहा है। यह कार्रवाई जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में 14 फरवरी को पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह जैश-ए-मोहम्मद के आत्मघाती हमले के बाद भारत के साथ बढ़े तनाव के बीच लिया है। पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। भारत ने हाल ही में पुलवामा हमले को लेकर जैश-ए-मोहम्मद के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान को एक डॉजियर सौंपा था।
 
'लॉंग वॉर जरनल' ने टिप्पणी की, "यदि अतीत को ध्यान में रखा जाए तो यह कोशिशें पाकिस्तान की धरती से हुए बड़े आतंकवादी हमलों को लेकर पश्चिमी देशों को संतुष्ट करने के लिये महज एक दिखावा है।" वेबसाइट ने कहा, विडंबना यह है कि पाकिस्तानी जनरलों और सरकारी अधिकारियों ने नियमित रूप से कहा कि आतंकवादी समूहों को पाकिस्तानी धरती पर संचालन की अनुमति नहीं है। फिर भी जमात-उद-दावा रावलपिंडी में स्वतंत्र रूप से अपना काम करता है, उस शहर में जहां पाकिस्तान का सैन्य मुख्यालय मौजूद है।" टिप्पणी में कहा गया है कि हाफिज सईद को बीते दो दशक के दौरान कम से कम चार बार "एहतियातन हिरासत" में रखा गया, सिर्फ रिहा करने के लिये। और पाकिस्तान सरकार का नाया कारनामा भी देखिये- पाकिस्तान ने हाफिज सईद से पूछताछ करना चाह रही संयुक्त राष्ट्र की एक टीम का वीजा अनुरोध ठुकरा दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध सूची से अपना नाम हटवाने के लिए सईद की ओर से दायर अर्जी के सिलसिले में यह टीम पाकिस्तान में जमात-उद-दावा प्रमुख से पूछताछ करना चाह रही थी।
 
-नीरज कुमार दुबे
 
आखिरकार इस बात का पटाक्षेप हो ही गया कि अयोध्या विवाद आम चुनाव से पहले नहीं सुलझेगा। पूर्व में चार बार बातचीत की नाकाम कोशिशों के बाद अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन के तहत अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद मामले को मध्यस्थ के जरिए बातचीत से सुलझाने का प्रयास होगा। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आज (08 मार्च 2019) ये फैसला लिया। कोर्ट ने मध्यस्थता के लिए तीन लोगों का पैनल गठित किया है। इस पैनल में श्री श्री रविशंकर, जस्टिस इब्राहिम खलीफुल्ला और श्री राम पंचू मध्यस्थता करेंगे। कोर्ट ने मध्यस्थता प्रक्रिया के दौरान मीडिया की रिपोर्टिंग पर भी रोक लगाई है। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 06 मार्च 2019 को मामला मध्यस्थता को भेजे जाने के मुद्दे पर सभी पक्षों की बहस सुनकर अपना फैसला सुनाया। मध्यस्थता के लिए कुल 8 हफ्तों का वक्त निश्चित किया गया है। मध्यस्थता पीठ फैजाबाद में बैठेगी। राज्य सरकार, मध्यस्थता पीठ को सुविधाएं उपलब्ध करवाएगी। कोर्ट ने कहा है कि मध्यस्थता शुरू होने में एक सप्ताह से अधिक का समय न लगे। साथ ही कोर्ट ने कहा है कि मध्यस्थता पैनल को 4 हफ्तों में मामले की रिपोर्ट देनी होगी।
गौरतलब है कि कोर्ट ने इससे पहले मध्यस्थता के प्रस्ताव पर पक्षकारों की राय पूछी थी, जिसमें मुस्लिम पक्ष और निर्मोही अखाड़ा की ओर से सहमति जताई गई थी। रामलला, महंत सुरेश दास और अखिल भारत हिंदू महासभा ने प्रस्ताव से असहमति जताते हुए कोर्ट से ही जल्द फैसला सुनाने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि इस प्रकार के प्रयास पूर्व में भी हो चुके हैं, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। गौरतलब है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के 2010 के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 14 अपीलें दायर की गई हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2.77 एकड़ की विवादित जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच बराबर−बराबर बांटने का आदेश दिया था।
 
सूत्र बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थता के फैसले का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता है कि अयोध्या विवाद की तारीख बढ़ गई है। दरअसल, जब तक सभी दस्तावेजों का अनुवाद नहीं हो जाएगा, तब तक सुनवाई की उम्मीद नहीं की जा सकती है और अनुवाद में करीब दो माह का समय लग सकता है।
बहरहाल, बात पूर्व में अयोध्या मामले को मध्यस्थता के जरिए सुलझाने की कोशिशों की कि जाए तो इसके लिए पहली कोशिश 90 के दशक में वीपी सिंह सरकार के समय में हुई थी। विवाद हल होता दिख भी रहा था। समझौते का ऑर्डिनेंस भी आ गया, लेकिन सियासत ने ऐसी करवट ली कि वीपी को अयोध्या विवाद को सुलझाने वाला ऑर्डिनेंस वापस लेना पड़ गया। दूसरी पहल चंद्रशेखर सरकार के दौरान हुई। मामला समाधान के करीब था लेकिन दुर्भाग्य था कि उनकी सरकार चली गई। नरसिम्हा राव की सरकार ने भी समझौते का प्रयास किया था, लेकिन फिर भी अंतिम हल तक नहीं पहुंचा जा सका। अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में कांची पीठ के शंकराचार्य के जरिए भी अयोध्या विवाद सुलझाने की कोशिश की थी। तब दोनों पक्षों से मिलकर जयेंद्र सरस्वती ने भी भरोसा दिलाया था, मसले का हल महीने भर में निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा तब भी कुछ नहीं हुआ।
 
व्यक्तिगत स्तर पर भी अयोध्या मामले की कई बार समझौते की पहल की जा चुकी हैं। आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर ने पिछले दिनों हिंदू−मुस्लिम दोनों पक्षकारों से मिलकर मध्यस्थता की कोशिश की, लेकिन बात बनी नहीं। इस बार भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गये मध्यस्थों में श्री श्री रविशंकर का नाम शामिल है।
 
जानिए मध्यस्थों को
 
अयोध्या में बाबरी मस्जिद−राममंदिर विवाद को सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन मध्यस्थों के नाम तय किए हैं। इन नामों में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस फकीर मुहम्मद इब्राहिम कलीफुल्ला, आर्ट ऑफ लिविंग के प्रमुख श्री श्री रविशंकर और सीनियर अधिवक्ता श्रीराम पंचू शामिल हैं। तीन सदस्यों के इस पैनल के सामने दोनों पक्षकार अपनी बात रखेंगे और ये मध्यस्थता फैजाबाद में होगी।
 
फकीर मुहम्मद इब्राहिम खलीफुल्ला
 
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्यस्थता के लिए बनी कमेटी के चेयरमैन पूर्व जस्टिस फकीर मुहम्मद इब्राहिम खलीफुल्ला होंगे। जबकि श्री श्री रविशंकर और श्री राम पंचू इसके सदस्य होंगे। इस कमेटी के सामने हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षकार अपनी बातें रखेंगे। इसके बाद ये कमेटी अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के सामने रखेगी। पूर्व जस्टिस फकीर मुहम्मद इब्राहिम खलीफुल्ला मूल रूप से तमिलनाडु के शिवगंगा जिले में कराईकुडी के रहने वाले हैं। खलीफुल्ला का जन्म 23 जुलाई 1951 को हुआ था। उन्होंने 20 अगस्त 1975 को अपने वकालत कॅरियर की शुरुआत की। वह श्रम कानून से संबंधित मामलों में सक्रिय वकील रहे थे। खलीफुल्ला को पहले मद्रास हाईकोर्ट में स्थाई न्यायाधीश नियुक्त किया गया। इसके बाद उन्हें जम्मू−कश्मीर हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। उन्हें 2000 में सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस के तौर नियुक्त किया गया और 2011 में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बनाया गया।
 
श्रीराम पंचू 
 
अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए बनी कमेटी के तीसरे सदस्य हैं श्रीराम पंचू। श्रीराम पंचू वरिष्ठ वकील हैं। श्रीराम पंचू मध्यस्थता के जरिए केस सुलझाने में माहिर रहे हैं। उन्होंने मध्यस्थता कर केस सुलझाने के लिए एक कानूनी संस्था भी गठित की है। इस संस्था का काम ही आपसी सुलह के जरिए कोर्ट से बाहर मुद्दों को सुलझाना है। श्रीराम पंचू एसोसिएशन ऑफ इंडियन मीडिएटर्स के अध्यक्ष हैं। वह बोर्ड ऑफ इंटरनेशनल मीडिएशन इंस्टीट्यूट के बोर्ड में भी शामिल रहे हैं। भारत की न्याय व्यवस्था में मध्यस्थता को शामिल करने में उनका अहम योगदान रहा है। श्रीराम पंचू देश के कई जटिल और वीवीआईपी मामलों में मध्यस्थता कर चुके हैं। इनमें कमर्शियल, कॉरपोरेट, कॉन्ट्रैक्ट के मामले जुड़े हैं। असम और नागालैंड के बीच 500 किलोमीटर भूभाग का मामला सुलझाने के लिए उन्हें मध्यस्थ नियुक्त किया गया था। इसके अलावा बंबई में पारसी समुदाय के मामले का निपटारा करने में भी वह मध्यस्थ रह चुके हैं।
 
श्री श्री रविशंकर
 
आर्ट ऑफ लिविंग के प्रमुख श्री श्री रविशंकर देश के प्रमुख आध्यात्मिक गुरुओं में से एक हैं। इससे पहले भी उन्होंने अयोध्या मामले में मध्यस्थता की कोशिश की थी, इसके लिए वह अयोध्या भी गए थे और पक्षकारों से मुलाकात की थी। श्री श्री रविशंकर का नाम जैसे ही मध्यस्थ के रूप में सामने आया तो कई पक्षों और बड़े साधु−संतों ने उनका विरोध किया।
 
आपको बता दें कि इससे पहले भी कई बार मध्यस्थता की कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन हर बार ये कोशिश असफल रही है। हालांकि, ये पहली बार हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस मसले को मध्यस्थता के लिए भेजा है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या की विवादास्पद 2.77 एकड़ भूमि तीन पक्षकारों− सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच बराबर−बराबर बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर सुनवाई के दौरान मध्यस्थता के माध्यम से विवाद सुलझाने की संभावना तलाशने का सुझाव दिया था।
 
-अजय कुमार
इस देश में आम नागरिक जितने जिम्मेदार हैं, राजनीतिक दलों के नेता उतने ही गैर जिम्मेदार हैं। पुलवामा हमले के बाद भारत−पाक में हुई एयर स्ट्राइक के बाद केंद्र की भाजपा सरकार और विपक्षी दलों में चल रही खींचतान इसकी गवाह है। देश के लोगों ने इस पूरे मसले को जितनी गंभीरता से लिया, राजनीतिक दल उतना ही बचपना दिखा रहे हैं। यह सारी कवायद आगामी लोकसभा चुनावों को लेकर की जा रही है। सत्तारूढ़ भाजपा इसे भुनाने की दाएं−बाएं से कोशिश कर रही है। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे पर भाजपा को घेरने में लगे हुए हैं।
सत्ता पक्ष और विपक्ष एक−दूसरे से सवाल−जवाब में उलझे हुए हैं। उनकी इन हरकतों से देश के आम जनमानस पर क्या असर पड़ेगा, इसकी चिंता किसी भी दल को नहीं है। एक भी दल जिम्मेदारी नहीं दिखा रहा है। भाजपा एयर स्ट्राइक का श्रेय लेने में जुटी हुई है, वहीं विपक्षी दल उसकी घेराबंदी करके इसे चुनावी चाल करार देने पर तुले हुए हैं। चुनाव के मद्देनजर हो रही इस किचकिच से राष्ट्रीय−अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की कितनी किरकिरी हो रही है, इसकी भी किसी को चिन्ता नहीं है। यहां तक की पाकिस्तानी मीडिया भी सत्ता को लेकर दलों में फैले इस दलदल को सुर्खियां बनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने सफाई पेश करने में जुटा हुआ है। इससे पहले भी विधान सभा चुनावों के दौरान सेना की स्ट्राइक पर राजनीतिक दलों ने एक−दूसरे पर जमकर लांछन लगाए थे।
 
इससे सेना के मनोबल और देश के लिए शहीद होने वाले सैन्यकर्मियों के परिवारों पर कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा, इसकी किसी नेता को चिंता नहीं है। पुलवामा हमले में शहीद हुए सैन्यकर्मियों के परिवारों के तो अभी आंख के आंसू भी नहीं सूखे हैं। सभी दल सेना के पराक्रम पर अपनी−अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हुए हैं। एक−दूसरे की छिछालेदार पर उतर आए हैं। राजनीतिक दलों का अब तक चारित्रिक इतिहास इसका गवाह रहा है कि ऐसे संवेदनशील मौकों को भी उन्होंने राजनीतिक तौर पर भुनाने का प्रयास किया है।
 
इस एयर स्ट्राइक के बाद भी लगने लगा था कि राजनीतिक दल इसे भुनाए बगैर नहीं मानेंगे। उनके इन आरोप−प्रत्यारोपों ने देश में जगे देशभक्ति के जज्बे को कमजोर करने का काम किया है। पुलवामा के शहीदों के बाद पूरा देश शोक में था। पाकिस्तान में आतंकवादी अड्डों पर वायुसेना की कार्रवाई के बाद नागरिकों का सदमा काफी हद तक कम हुआ। लगने लगा कि भारत ऐसी नापाक हरकतों का मुंह तोड़ जवाब देने का साहस रखता है।
विंग कमांडर अभिनंदन के पाकिस्तान के लड़ाकू विमान एफ-16 को मार गिराए जाने के दौरान पकड़े जाने पर देश में एक बार फिर देशभक्ति के साथ एकता का संचार हुआ। देश भर से अभिनंदन के रिहाई की दुआएं की जाने लगीं। विश्व समुदाय के दबाव के सामने आखिरकार पाकिस्तान को जांबाज विंग कमांडर को रिहा करना पड़ा। देशभक्ति से सरोबार पूरे देश में इसका जश्न मनाया गया। राजनीतिक दल यदि सत्तालोलुपता नहीं दिखाकर इस ज्वार को देश के निर्माण की दिशा में मोड़ने का प्रयास करते तो भारत मजबूती के रास्ते पर कुछ कदम आगे बढ़ता।
 
इससे देश की एकता−अखण्डता और मजबूत होती। नए राष्ट्रवाद का संचार होता। इसके विपरीत राजनीतिक दलों ने एक−दूसरे के खिलाफ सवाल−जवाबों का दौर शुरू कर दिया। देश के लोगों की सकारात्मक ताकत को नकारात्मक में बदलने का काम किया गया। उनके जज्बों को सही दिशा में नेतृत्व देने के बजाए राजनीतिक दल आपस में ही उलझ गए। इससे राजनीतिक दलों ने यह साबित कर दिया कि उनके लिए सत्ता ही सर्वोपरि है। देश की एकता−अखंडता को मजबूत करने के प्रयासों को दलों की ऐसी करतूतों से ही झटका लगता है।
 
 
होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक दलों को ऐसे मसलों पर जुबां बंद रखनी चाहिए। सभी दलों को हर हाल में सेना का मनोबल बढ़ाए रखना चाहिए। चुनावी लाभ के लिए इसके प्रचार से बचा जाना चाहिए। चुनाव जीतने के लिए किए गए विकास कार्यों और भावी योजनाओं को सामने रखना चाहिए। विपक्षी दलों को भी सरकार के कामकाज की आलोचना करनी चाहिए। यह पहला मौका नहीं है जब देश के लोगों ने पाकिस्तान पर की गई एयर स्ट्राइक के बाद देशभक्ति का परिचय दिया हो। इससे पहले भारत−पाकिस्तान, भारत−चीन और कारगिल युद्ध के दौरान भी देश के लोगों ने अपने दुख−दर्द भूलकर गजब की एकता का परिचय दिया। वर्ष 1998 में वाजपेयी सरकार द्वारा किए द्वितीय परमाणु परीक्षण के दौरान भी देश के लोगों ने ऐसी ही राष्ट्रभावना प्रदर्शित की थी। इस परीक्षण के बाद अमेरिका सहित कई मुल्कों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे। देश पर आर्थिक संकट आने के बावजूद लोगों ने उफ तक नहीं की। अपनी तकलीफों के लिए किसी को दोष नहीं दिया।
 
इतना ही नहीं वाजपेयी सरकार के इस बुलंद फैसले पर आगामी चुनाव में जनता ने मुहर तक लगा दी। दूसरी तरफ राजनीतिक दल हैं, जो ऐसी आपात स्थिति में भी निहित राजनीतिक स्वार्थों में डूब कर एक−दूसरे को नीचा दिखाने में जुटे हुए हैं। होना यह चाहिए कि राजनीतिक दल अपने लिए अपनी लक्ष्मण रेखा तय करें, वैसे भी देश किसी एक राजनीतिक दल के भरोसे नहीं है।
 
-योगेन्द्र योगी
दिव्य कुम्भ, भव्य कुम्भ। प्रयागराज में मकर संक्रांति से शुरू हुआ कुम्भ मेला महाशिवरात्रि पर समाप्त हुआ। शिवरात्रि को आखिरी स्नान पर्व था और इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। पृथ्वी पर लगने वाला दुनिया का सबसे बड़ा मेला कुम्भ इस मायने में महत्वपूर्ण रहा कि इसकी भव्यता, गंगा की निर्मलता और साफ सफाई की पूरी दुनिया में चर्चा रही। कुम्भ मेले का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 दिसंबर 2018 को गंगा पूजन कर किया था। उसी दिन 450 साल बाद ऐतिहासिक अक्षयवट और सरस्वती कूप खोलने की भी घोषणा की गयी थी।
इस कुम्भ मेले में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी पहुँचे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संगम में स्नान किया और गंगा आरती की। यही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के तो सभी मंत्री एक साथ कुम्भ नहाने पहुँचे और साथ ही प्रदेश के इतिहास में पहली बार कैबिनेट की बैठक राजधानी लखनऊ के बाहर प्रयागराज में हुई। कुम्भ मेले ने उत्तर प्रदेश को तो बहुत कुछ दिया ही इस मेले के लिए खासतौर पर प्रयागराज को एअरपोर्ट और एक नया रेलवे स्टेशन भी मिला।

 

कुम्भ मेला इस कदर रौशनी में नहाया रहा कि दुनिया आश्चर्यचकित रह गयी। हर स्नान पर्व पर एक साथ ढाई से तीन करोड़ लोगों का आना और बिना किसी समस्या के स्नान पर्व का निपटना, बेहतरीन सुविधाओं वाली टैंट नगरी, विभिन्न अखाड़ों के शाही स्नान, उनकी पेशवाई और अखाड़ों की चहल-पहल तथा आचार्य महामंडलेश्वरों की शानौ शौकत, पंडालों में गूंजते वैदिक मंत्र और घंटे घड़ियाल, सुंदर झाकियों को देखने के लिए लगी लाइनें, नागा बाबाओं को हैरत से देखती भीड़, पहली बार लगे किन्नर अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद लेने के लिए लगी भक्तों की भीड़, हठयोगियों के हठ को आश्चर्य से देखते लोग, ठंड के बावजूद खुले आसमान के नीचे डेरा जमाए सुबह का इंतजार करते श्रद्धालु, घाटों पर साफ-सफाई और लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात सुरक्षाकर्मी, जल पुलिस की चौकस निगाहें, स्नान पर्वों पर स्नानार्थियों पर फूल बरसाते हेलीकॉप्टर, पुलिस और प्रशासन के लोगों का लखनवी अंदाज, हर पचास कदम पर कूड़ेदान की व्यवस्था, जगह-जगह बने शौचालय, अस्पताल, एटीएम, खोया पाया केंद्र आदि हर तरह की सुविधाओं वाला यह महाकुम्भ पर्व वर्षों तक याद रखा जायेगा।
 

 

इस कुम्भ में लोगों ने वह दृश्य भी देखा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संगम में आस्था की डुबकी लगाने के बाद अक्षयवट की पूजा की। बाद में बड़े हनुमानजी के दर्शन किए और फिर कुम्भ में स्वच्छाग्रहियों के पैर धोए। इन्हीं सफाईकर्मियों ने दिन-रात मेहनत कर कुम्भ में स्वच्छता की ऐसी मिसाल कायम की जो पहले कभी नहीं देखी गई। मोदी ने कुम्भ के दौरान स्वच्छाग्रहियों के पैर धोकर ना सिर्फ उनका आशीष ग्रहण किया बल्कि एक संदेश भी दिया। इस दौरान सफाई कर्मचारी कुर्सियों पर बैठे थे जबकि मोदी नीचे एक पटरे पर बैठे थे। इसके अलावा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी संगम तट पर पूजा-पाठ किया और गंगा आरती कर विश्व कल्याण की कामना की। राष्ट्रपति ने साधु-संतों से भी मुलाकात की। राष्ट्रपति ने संगम नोज से ही महर्षि भारद्वाज की प्रतिमा का बटन दबाकर अनावरण किया। राष्ट्रपति कोविंद कुम्भ में आने वाले देश के दूसरे राष्ट्रपति हैं। इससे पहले प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1953 में कुंभ मेला आए थे।
 
कुम्भ मेले में यात्रियों की निःशुल्क सेवा के लिए लगाई गईं 500 से अधिक शटल बसों ने गत सप्ताह एक साथ परेड कर विश्व रिकॉर्ड बनाया। इससे पूर्व सबसे बड़े बेड़े का रिकॉर्ड अबु धाबी के नाम था जहां दिसंबर, 2010 में 390 बसों ने परेड कर रिकॉर्ड बनाया था। गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के अधिनिर्णायक ऋषि नाथ ने बताया कि परेड के लिए 510 बसें लगाई गई थीं जिसमें सात बसें मानक के अनुरूप नहीं चल सकीं। 503 बसें मानक के अनुरूप चलीं।
 
कुम्भ मेला यहाँ हुई धर्म संसदों को लेकर सुर्खियों में भी रहा। क्योंकि जनवरी-फरवरी माह के दौरान अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए साधु संतों ने जोरदार आंदोलन चलाया हुआ था। इसके अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर की एक टिप्पणी- इस संगम में सभी नंगे हैं को लेकर भी भारी विवाद हुआ। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाये तो पिछले कई आयोजनों से यह आयोजन बेहतरीन रहा। लगभग 45 किलोमीटर के दायरे में बसायी गयी कुम्भ नगरी में यदि दो माह में 25 करोड़ से ज्यादा लोग आयें और बिना किसी असुविधा के स्नान और पूजन करके जाएं तो यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। इतनी बड़ी संख्या में एक साथ लोगों के आने से यहाँ के लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार भी मिला और उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को जोरदार फायदा हुआ। रेल, विमान, यात्री बसों की सुविधाएं बेहतरीन रहीं। यही कारण रहा कि इस बार वाराणसी में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन के बाद जब बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीयों ने कुम्भ में स्नान किया तो यहाँ की सुविधाओं की तारीफ करते नहीं थके। खुद प्रभासाक्षी की टीम ने कुम्भ मेले में लंबा समय बिताया और गंगा मैय्या की जय के उद्घोष के बीच हर व्यक्ति चाहे वह साधु हो या श्रद्धालु, मोदी और योगी की तारीफों के पुल बांधते हुए दिखे। वाकई एक दिव्य और भव्य तथा श्रेष्ठ आयोजन के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को बधाई।
 
- नीरज कुमार दुबे

लखनऊ. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्मयंत्री अखिलेश यादव को मंगलवार को अमौसी एयरपोर्ट पर प्रयागराज जाने से रोक दिया गया। अखिलेश प्राइवेट प्लेन से एक छात्र नेता के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनका कुंभ जाने का भी कार्यक्रम था। अखिलेश को रोके जाने के मुद्दे पर संसद, विधानसभा और विधानपरिषद में जोरदार हंगामा हुआ। इस बीच, सरकार ने कहा कि अखिलेश को रोकने का फैसला इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के आग्रह पर लिया गया।

प्रशासन और सरकार ने बम फेंकने वालों की मदद की- अखिलेश
इस घटना के बाद अखिलेश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा- हमने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का कार्यक्रम 27 दिसंबर को ही भेज दिया था ताकि कोई शिकायत हो तो उसकी जानकारी मिल जाए। भाजपा और उनके समर्थक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के चुनावों को अपना चुनाव समझ रहे थे। सरकार और सभी मंत्री इस चुनाव में शामिल हो रहे थे। मुख्यमंत्री जब भी यूनिवर्सिटी जाते थे, तब वह जरूर अपने लोगों को यह आदेश दे रहे होंगे कि इन चुनावों में किसी भी कीमत पर हार ना हो। अब जब शपथ ग्रहण समारोह होने जा रहा था, तब वहां तीन बम फेंके गए। जहां मंच था, वहां पर विस्फोट हुए। सरकार और प्रशासन ने उन लोगों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया, जिन्होंने ये काम किया। लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ है कि सरकार और प्रशासन ऐसे लोगों की मदद कर रहे हैं, जो किसी कार्यक्रम में बम फेंक रहे हैं।

भारत की राजनीति का वो दुर्लभ दिन जब विपक्ष अपनी विपक्ष की भूमिका चाहते हुए भी नहीं नहीं निभा पाया और न चाहते हुए भी वह सरकार का समर्थन करने के लिए मजबूर हो गया, इसे क्या कहा जाए? कांग्रेस यह कह कर क्रेडिट लेने की असफल कोशिश कर रही है कि बिना उसके समर्थन के भाजपा इस बिल को पास नहीं करा सकती थी लेकिन सच्चाई यह है कि बाज़ी तो मोदी ही जीतकर ले गए हैं। “आरक्षण",  देश के राजनैतिक पटल पर वो शब्द, जो पहले एक सोच बना फिर उसकी सिफारिश की गई जिसे, एक संविधान संशोधन बिल के रूप में प्रस्तुत किया गया, और अन्ततः एक कानून बनाकर देश भर में लागू कर दिया गया।
  
आजाद भारत के राजनैतिक इतिहास में 1990 और 2019 ये दोनों ही साल बेहद अहम माने जाएंगे। क्योंकि जब 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने देश भर में भारी विरोध के बावजूद मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर "जातिगत आरक्षण" को लागू किया था तो उनका यह कदम देश में एक नई राजनैतिक परंपरा की नींव बन कर उभरा था। समाज के बंटवारे पर आधारित जातिगत विभाजित वोट बैंक की राजनीति की नींव।
 
इस लिहाज से 8 जनवरी 2019 की तारीख़ उस ऐतिहासिक दिन के रूप में याद की जाएगी जिसने उस राजनीति की नींव ही हिला दी। क्योंकि मोदी सरकार ने ना केवल संविधान में संशोधन करके, आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है बल्कि भारत की राजनीति की दिशा बदलने की एक नई नींव भी रख दी है। यह जातिगत वोटबैंक आधारित राजनीति पर केवल राजनैतिक ही नहीं कूटनीतिक विजय भी है। इसे मोदी की कूटनीतिक जीत ही कहा जाएगा कि जिस वोटबैंक की राजनीति सभी विपक्षी दल अब तक कर रहे थे, आज खुद उसी का शिकार हो गए। यह वोटबैंक का गणित ही था कि देश में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण लागू करने हेतु 124वाँ संविधान संशोधन विधेयक राजयसभा में भाजपा अल्पमत में होते हुए भी पारित करा ले जाती है। मोदी सरकार की हर नीति का विरोध करने वाला विपक्ष, मोदी को रोकने के लिए अपने अपने विरोधों को भुलाकर महागठबंधन तक बना कर एक होने वाला विपक्ष आज समझ ही नहीं पा रहा कि वो मोदी के इस दांव का सामना कैसे करे। अब खास बात यह है कि आरक्षण का लाभ किसी जाति या धर्म विशेष तक सीमित न होकर हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई पारसी और अन्य अनारक्षित समुदायों को मिलेगा। यह देश के समाज की दिशा और सोच बदलने वाला वाकई में एक महत्वपूर्ण कदम है।
 
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश में हर विषय पर राजनीति होती है। शायद इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का यह फैसला एक राजनैतिक फैसला है जिसे केवल आगामी लोकसभा चुनावों में राजनैतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से लिया गया है। तो इन लोगों से एक प्रश्न कि देश के वर्तमान परिदृश्य में कौन-सा ऐसा राजनैतिक दल है जो राजनैतिक नफा नुकसान देखे बिना कोई कदम उठाना तो दूर की बात है, एक बयान भी देता है ? कम से कम वर्तमान सरकार का यह कदम विपक्षी दलों के उन गैर जिम्मेदाराना कदमों से तो बेहतर ही है जो देश को धर्म जाति सम्प्रदाय के नाम पर बांट कर समाज में वैमनस्य बढ़ाने का काम करते हैं और नफरत की राजनीति करते हैं। याद कीजिए 1990 का वो साल जब ना सिर्फ हमारे कितने जवान बच्चे आरक्षण की आग में झुलसे थे बल्कि आरक्षण के इस कदम ने हमारे समाज को भी दो भागों में बांट कर एक दूसरे के प्रति कटुता उत्पन्न कर दी थी। इसका स्पष्ट उदाहरण हमें तब देखने को मिला था जब अभी कुछ माह पहले ही सरकार ने एट्रोसिटी एक्ट में बदलाव किया था और देश के कई हिस्से हिंसा की आग में जल उठे थे।
 
कहा जा सकता है कि जातिगत भेदभाव की सामाजिक खाई कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन अब जाति या सम्प्रदाय सरीखे सभी भेदों को किनारे करते हुए केवल आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण ने सामाजिक न्याय की दिशा में एक नई पहल का आगाज़ किया है। समय के साथ चलने के लिए समय के साथ बदलना आवश्यक होता है। आज जब आरक्षण की बात हो रही हो तो यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी।
दरअसल जब देश में आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई थी तो उसके मूल में समाज में पिछड़े वर्गों के साथ होने वाले अत्याचार और भेदभाव को देखते हुए उनके सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए मंडल आयोग द्वारा कुछ सिफारिशें की गई थीं जिनमें से कुछ एक को संशोधन के साथ अपनाया गया था। लेकिन आज इस प्रकार का सामाजिक भेदभाव और शोषण भारतीय समाज में लगभग नहीं के बराबर है। और आज आरक्षण जैसी सुविधा के अतिरिक्त देश के इन शोषित दलित वंचित वर्गों के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव अथवा अन्याय को रोकने के लिए अनेक सशक्त एवं कठोर कानून मौजूदा न्याय व्यवस्था में लागू हैं जिनके बल पर सामाजिक पिछड़ेपन की लड़ाई हम लोग काफी हद तक जीत चुके हैं। अब लड़ाई है शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन की। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने मौजूदा आरक्षण व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं करते हुए इसकी अलग व्यवस्था की है जो अब समाज में आरक्षण के भेदभाव को ही खत्म कर के एक सकारात्मक माहौल बनाने में निश्चित रूप से मददगार होगा। चूंकि अब समाज का हर वर्ग ही आरक्षित हो गया है तो आए दिन समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा आरक्षण की मांग और राजनीति पर भी लगाम लगेगी।
 
और अब आखिरी बात जो लोग इसका विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि सरकार के इस कदम का कोई मतलब नहीं है क्योंकि नौकरियाँ ही नहीं हैं उनसे एक सवाल। जब मराठा, जाट, पाटीदार, मुस्लिम, आदि आरक्षण की मांग यही लोग करते हैं तब इनका यह तर्क कहाँ चला जाता है ?
 
- डॉ. नीलम महेंद्र
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की प्रेस कांफ्रेस हो चुकी है। दोनों 38−38 सीटों पर चुनाव लड़ेगें। मायावती ने भाजपा और कांग्रेस को तौला तो एक ही तराजू पर लेकिन अमेठी में राहुल गांधी ओर और रायबरेली सोनिया गांधी के खिलाफ गठबंधन का कोई प्रत्याशी नहीं उतारे जाने की बात कहकर कई संकेत भी दे दिए। कांग्रेस से गठबंधन नहीं होने की बड़ी वजह मायावती ने यही बताई कि कांग्रेस का वोट उनके पक्ष में ट्रांसफर नहीं होता है, संकेत की भाषा को समझा जाये तो उन्हें लगता है कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करने से उसका वोट भाजपा के खाते में चला जाता है। मायावती अखिलेश की संयुक्त प्रेस कांफ्रेस के साथ ही यह भी साफ हो गया कि राष्ट्रीय लोकदल को लेकर मायावती में कोई उत्साह नहीं है, जबकि अखिलेश भी कुछ बोलने से कतराते दिखे। गठबंधन को लेकर आज काफी कौतुहल तो दिखाई दिया, लेकिन यह नहीं भुलना चाहिए कि हर चुनाव का अलग मिजाज होता है। सपा−बसपा की जोड़ी भाजपा को टक्कर तो जरूर देगी, लेकिन चुनाव एक तरफा हो जायेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हॉ, यह बात भी साफ हो गई है कि उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमों मायावती निर्विवाद रूप से मोदी के खिलाफ सबसे बड़ी नेत्री बनकर उभरी हैं तो राहुल गांधी की हैसियत चौथे नंबर पर है।
 
बहरहाल, बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने एक साथ चुनाव लड़ने की घोषणा करके उत्तर प्रदेश की सियासत में 25 वर्षो के बाद एक बार फिर इतिहास दोहरा दिया । 1993 में जब बीजेपी राम नाम की आंधी में आगे बढ़ रही थी तब दलित चिंतक और बसपा नेता कांशीराम एवं समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने ठीक इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव फतह के लिये हाथ मिलाकर भाजपा को चारो खाने चित कर दिया था। उस समय नारा भी लगा था,' मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्री राम। 'खास बात यह है कि तब भी अयोध्या मंदिर−मस्जिद विवाद में सुलग रही थी और आज भी कमोवेश ऐसे ही हालात हैं। बस फर्क इतना भर है कि 1993 में कमंडल (अयोध्या विवाद) के सहारे आगे बढ़ रही बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के उस समय के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बीएसपी सुप्रीमो कांशीराम ने हाथ मिलाया था तो 25 वर्षो बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मुलायम की जगह उनके उत्ताराधिकारी मायावती और अखिलेश यादव गठबंधन की रहा पर आगे बढ़ रहे हैं। दोनों नेताओं को लगता है कि साथ चलने से वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव की जैसी दुर्गित को रोका जा सकता है।
 
सपा−बसपा इस बात का अहसास राज्य में तीन लोकसभा सीटों पर हुए उप−चुनाव जीत जीत कर करा भी चुके हैं। इस साल के मध्य से कुछ पूर्व होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर वोटिंग पैटर्न उप−चुनावों जैसा ही रहा तो सपा−बसपा गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा को 35−40 सीटों  पर समेट सकता है। सपा−बसपा की राह इस लिये भी आसान लग रही है क्योंकि यहां कांग्रेस फैक्टर बेहद कमजोर है, इसी के चलते सपा−बसपा ने गठबंधन से कांग्रेस को दूर भी रखा।
 
गौरतलब हो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी,जिसमें उसकी सहयोगी अपना दल की भी दो सीटें शामिल थीं। वहीं समाजवादी पार्टी 5 सीट और कांग्रेस महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। बसपा का तो खाता भी नहीं खुल पाया था। करीब पांच वर्षो के बाद आज भी लोकसभा में बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। राजनीति के जानकार सपा−बसपा गठबंधन की बढ़त की जो संभावना व्यक्त कर रहे हैं। उसमें वह वर्ष 2014 में अपना दल और बीजेपी तथा सपा−बसपा के वोट शेयर का तुलनात्मक अध्ययन को आधार बना रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हर सीट पर जीत का आकलन किया जाये तो पता चलता है कि अगर एसपी−बीएसपी साथ आए तो वह आधी यानी करीब 41 लोकसभा सीटों पर भाजपा को हरा सकते हैं। 
 
 
यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरे पहलू पर नजर दौड़ाई जाए तो लोकसभा की तीन सीटों पर हुए उप−चुनाव के समय वोटिंग का प्रतिशत कम रहा था। माना यह गया कि भाजपा का कोर वोटर वोटिंग के लिये निकला ही नहीं था। मगर आम चुनाव के समय हालात दूसरे होंगे। फिर हमेशा चुनावी हालात एक जैसे नहीं होते हैं। मोदी सरकार सभी वर्ग के लोगों को लुभाने के लिए गरीब अगड़ों को दस प्रतिशत आरक्षण का एतिहासिक फैसला कर चुकी है। यूपी में आरक्षण कोटे में कोटा का खेल करके बीजेपी सपा−बसपा के दलित−पिछड़ा वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रही है। व्यापारियों को जीएसटी में राहत, तीन तलाक पर एक बार फिर अध्यादेश लाना भी मोदी सरकार की सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है। आने वाले दिनों में  आयकर की सीमा बढ़ाकर मध्य वर्ग को खुश किया जा सकता है। किसानों के लिये भी कई महत्वपूर्ण घोषणा हो सकती हैं। मोदी ने अपर कास्ट को आरक्षण का जो मास्टर स्ट्रोक चला है, वह आम चुनाव में अपना असर दिखा सकता है। इसके अलावा भी यह ध्यान रखना होगा कि लोग किन−किल मुद्दों पर वोट करेंगे।यह सच है कि साल 2014 में दस वर्ष पुरानी कांग्रेस गठबंधन वाली यूपीए सरकार को लेकर मतदाताओं में जबर्दस्त रोष था और विकल्प के रूप में उनके सामने प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी जैसा दावेदार मौजूद था।
 
2019 में मोदी सरकार का कामकाज मतदाताओं के सामने मुख्य मुद्दा होगा, लेकिन सवाल यह भी रहेगा कि मोदी नहीं तो कौन? फिलहाल तो विपक्ष के पास मोदी के समकक्ष तो दूर आस−पास भी कोई नेता नजर नहीं आता है। खासकर कांग्रेस के संभावित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी एक बड़ा ड्रा बैक नजर आ रहे हैं, जिसकी सोच का दायरा काफी छोटा और संक्रीण है।
 
यहां यह भी ध्यान देना होगा कि बीएसपी हो या फिर समाजवादी पार्टी गठबंधन के बाद सपा−बसपा के जिन नेताओं के चुनाव लड़ने की उम्मीदों पर पानी फिरेगा, वह चुप होकर नहीं बैठेंगें। यह बगावत कर सकते हैं। चुनाव नहीं भी लड़े तो पार्टी को नुकसान पहुंचाने से इन्हें गुरेज नहीं होगा। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि हर पार्टी में ऐसे वोटरों की भी संख्या अच्छी−खासी होती है जो किसी और दल के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने से कतराता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। इसके अलावा एक हकीकत यह भी है कि योगी के सत्ता में आने से पहले समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच ही सत्ता का खेल चलता था। ऐसे में दोनों पार्टियों के तमाम नेता सत्ता बदलने पर एक−दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल देते थे, जिसमें अपने हित साधने के लिये आपस में मारकाट से लेकर जमीनों पर कब्जा, खनन−पटटों के लिये खूनी खेल तक खेला जाता था। ऐसे में सपा के कुछे नेता बसपा के पक्ष में अपने समर्थको से मतदान नहीं कराएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे ही हालात बसपा में भी हैं। इसी प्रकार से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद मतदाता बसपा के पक्ष में वोट नहीं करना चाहते। यहां जाट और जाटव (दलित) हमेशा विरोधी खेमें में खड़े रहते हैं। सपा−बसपा के जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, वह बागी रूख अख्तियार करने के अलावा भाजपा नेताओं से भी हाल मिला सकते हैं।
 
कुछ राजनीतिक विश्लेषक साल 1993 के विधानसभा चुनावों का हवाला देते हैं जब सपा−बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में भाजपा और सपा−बसपा ने लगभग बराबर सीटें हासिल की थीं। तब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था और बीजेपी ने वहां 19 सीटें जीती थीं और कांग्रेस भी यहां इतनी दयनीय स्थिति में नहीं थी। तब कुर्मी और राजभर जैसी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधि करने वाले कई नेता जो तब बसपा में थे, अब भाजपा के साथ खड़े हैं। मोदी जैसा गणितिज्ञ चेहरा भी भाजपा के पास है, जो आने वाले दिनों में वोटरों को लुभाने के लिये कई सौगातों की बरसात कर सकते हैं। फिर भी 1993 के सहारे सपा−बसपा नेता हौसलाफजाई तो कर ही सकते हैं।
 
- अजय कुमार

लखनऊ. लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन के ऐलान के बाद रविवार को कांग्रेस ने भी साफ कर दिया कि पार्टी उत्तरप्रदेश की सभी 80 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि हमारी तैयारी पूरी है। हम सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर केवल अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही हरा सकती है।
इससे पहले शनिवार को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर गठबंधन का ऐलान किया था। उप्र में दोनों पार्टियां 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। हालांकि, मायावती ने कहा था कि वे कांग्रेस से गठबंधन किए बिना भी उनके लिए अमेठी और रायबरेली सीट पर प्रत्याशी नहीं उतारेंगे। अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से सोनिया गांधी सांसद हैं।
कांग्रेस ने टुकड़ों में बंटे देश को अखंड भारत बनाया- आजाद
आजाद ने कांग्रेस की उपलब्धियां गिनाते हुए कहा कि हमारी पार्टी ने ही टुकड़े-टुकड़े में बंटे भारत को अखंड भारत बनाया। उन्होंने कहा कि देश को आजादी दिलाने में कांग्रेस का महत्पवूर्ण योगदान रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर नेहरू तक सभी ने अपना-अपना योगदान दिया, जिसकी वजह से देश अखंड बन पाया।
अखिलेश-माया को गठबंधन का हक: राहुल गांधी
राहुल ने दुबई में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गठबंधन के सवाल को लेकर शनिवार को कहा था, ''सपा-बसपा को गठबंधन का हक है, लेकिन वहां पर कांग्रेस अपनी विचारधारा की लड़ाई पूरे दम से लड़ेगी। मायावती-अखिलेश ने जो फैसला लिया, मैं उसका आदर करता हूं। ये उनका फैसला है। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में खुद को खड़ा करना है। हम ये कैसे करेंगे, यह हमारे ऊपर है। हमारी लड़ाई भाजपा की विचारधारा से है और हम यूपी में पूरे दम से लड़ेंगे।''

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