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राजनीति

राजनीति (6670)

आजम के काले कारनामों का सच जानकर लोग हैरान हैं तो ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो इसे (आजम पर मुकदमे) योगी सरकार की साजिश बताकर आजम का बचाव कर रहे हैं। यहां तक कि समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी ऐसा ही सोचते हैं।

 योगी सरकार द्वारा भूमाफिया घोषित किए गए बदजुबान नेता और सांसद आजम खान आजकल कोर्ट−कचहरी से लेकर थाने तक के चक्कर लगा रहे हैं। आम चुनाव के समय अपनी प्रतिद्वंद्वी और पूर्व सिने तारिका जयाप्रदा के वस्त्रों पर टिप्पणी करने वाले आजम, भारत माता से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, लोकसभा की कार्यवाही का संचालन कर रहीं रमा देवी, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, भारतीय सेना, ब्यूरोक्रेसी, संजय और राजीव गांधी की असामयिक मृत्यु सहित तमाम मसलों पर विवादित बयानबाजी के चलते खूब सुर्खियां बटोरते रहे हैं। कुछ मामलों में जब 'पानी सिर से ऊपर' चला गया तो आजम को माफी मांग कर पीछा छुड़ाना पड़ा। सत्ता में रहते और सत्ता से बाहर रहने के दौरान भी आजम कभी डरे नहीं, डिगे नहीं। उन्हें अपनी कही बातों पर कभी पछतावा भी नहीं हुआ, लेकिन योगी राज में नजारा काफी बदल गया है। बड़बोले आजम घुटने के बल आ गए हैं। आजम ने न केवल समाजवादी सरकार के समय वाला 'इकबाल' खो दिया है, बल्कि सत्ता में रहते उनके द्वारा जो काले कारनामे किए गए थे उसकी भी परत−दर−परत खुलने लगी है। अब आजम की हनक−धमक वाली बातें बेमानी हो गई हैं। आजम ही नहीं उनकी पत्नी, बेटा और कुछ करीबी भी अदालतों से लेकर थाना−पुलिस के चक्कर में फंसे हुए हैं। जांच एजेंसी एसआईटी लगातार आजम परिवार से पूछताछ कर रही है। आजम को एसआईटी के सवालों का जवाब देने में पसीने छूट रहे हैं।

आजम के काले कारनामों का सच जानकर लोग हैरान हैं तो ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो इसे (आजम पर मुकदमे) योगी सरकार की साजिश बताकर आजम का बचाव कर रहे हैं। यहां तक कि समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव भी ऐसा ही सोचते हैं। इसीलिए पिछले माह उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस करके कार्यकर्ताओं से आजम के समर्थन में आंदोलन चलाने तक का आह्वान किया था। यह और बात थी कि नेताजी की बात को न तो पार्टी कार्यकर्ताओं ने और न ही अखिलेश यादव ने गंभीरता से लिया। हाँ, एक बार आजम के समर्थन में जरूर अखिलेश रामपुर पहुंचे थे, परंतु उनके कार्यक्रम में वह धार नहीं दिखाई दी जो सपा के आंदोलन में देखने को मिलती है। सब तरफ से निराशा−हताश आजम खान के लिए अंतिम सहारा अदालत थी। योगी सरकार की कथित 'साजिश' को आधार बनाकर आजम कोर्ट पहुंच गए, लेकिन कोर्ट भी इस बात से सहमत नहीं दिखी कि आजम 'दूध के धुले' हैं। हालांकि कुछ समय के लिए आजम को अग्रिम जमानत जरूर मिल गई। यह जमानत आजम के लिए 'डूबते को तिनके का सहारा' जैसी रही। आजम खान सबसे अधिक जौहर विश्वविद्यालय के लिए अनाप−शनाप तरीके से जमीन का जुगाड़ करने के अलावा समाजवादी सरकार में मंत्री रहते अपने अधीनस्थ जल निगम में कानून कायदे ताक पर रख कर अपने चहेतों को नियुक्तियां दिलाने के कारण फंसे हुए हैं।
 
आपराधिक, भ्रष्टाचार और जबरन जमीन कब्जाने के 85 से अधिक मामलों में मुकदमों में फंसे सपा सांसद आजम खान को एक अक्टूबर 2019 को जल निगम भर्ती घोटाले में पूछताछ के लिए एसआईटी के कहने पर लखनऊ आना पड़ा। अखिलेश यादव सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे आजम जल निगम भर्ती घोटाले में प्रमुख आरोपी हैं। एसआईटी ने आजम के साथ इस मामले में रिटायर्ड आईएएस अफसर एसपी सिंह तथा तीन अन्य अफसरों को भी नामजद किया है। सूत्रों का कहना है कि फर्जी भर्ती घोटाले में एसआईटी ने काफी पुख्ता सुबूत इकट्ठा कर लिए हैं। फॉरेंसिक रिपोर्ट आने के बाद जांच और तेजी के साथ आगे बढ़ना तय है। मालूम हो कि सपा के शासनकाल में 2016 के अंत में हुई जल निगम में 1300 पदों पर भर्तियां निकली थीं। इसमें 122 सहायक अभियंता, 853 अवर अभियंता, 335 नैतिक लिपिक और 32 आशुलिपिकों की भर्ती हुई थी। जल निगम विभाग के ही कुछ अधिकारियों ने इस संबंध में धांधली की शिकायत की थी, जिसके बाद जांच शुरू हुई। सरकार इस मामले में 122 सहायक अभियंताओं को पहले ही बर्खास्त कर चुकी है।
     
जल निगम में भर्ती घोटाला के साथ−साथ आजम के तमाम काले कारनामों और उसमें बेटा और पत्नी की भी भागीदारी खुलकर सामने आ रही है। वहीं आजम का बेटा अब्दुल्ला दो पैन कार्ड रखने का भी आरोपी है। दो पैन कार्ड रखने का मामला साबित हो गया तो अब्दुल्ला की विधायकी भी जा सकती है। हालात यह हैं कि आजम खान की पत्नी और राज्यसभा सांसद तंजीन फातिमा जो पति आजम खान के सांसद बनने के बाद उनकी खाली हुई रामपुर सदर विधान सभा सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं वह तब अपना नामांकन दाखिल कर पाईं जब उन्होंने बिजली विभाग के खाते में 30 लाख रुपए के जुर्माने की राशि जमा करा दी।
दरअसल, आजम खान के हमसफर रिजॉर्ट में रेड के दौरान 5 केवी के मीटर पर लगभग 33 केवी का लोड पाया गया। बिजली का कनेक्शन तंजीन के नाम था। रिजॉर्ट में बिजली सप्लाई के लिए अलग से एक पावर लाइन लगाई गई थी। बिजली विभाग ने जानकारी मिलने के बाद जब छापा मारा तो बिजली चोरी का खुलासा हुआ। छापे के बाद बिजली विभाग ने आजम खान के रिजॉर्ट का कनेक्शन काट दिया था और आजम खान की पत्नी तंजीम फातिमा पर बिजली चोरी अधिनियम के तहत 30 लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया था। यह रकम जमा करे बिना तंजीन नामांकन करने पहुंच गई थीं, लेकिन नियम यह है कि कोई भी सरकारी बकाया होने पर प्रत्याशी का नामांकन स्वीकार नहीं किया जाता है। इसलिए तंजीन को पहले 30 लाख रुपए जमा करने पड़े, इसके बाद उनका नामांकन स्वीकार हुआ।
 
रामपुर सदर विधान सभा उप−चुनाव आजम परिवार के लिए नाक का सवाल बन गया है। अगर यह सीट बच गई तो आजम को इससे काफी राहत मिलेगी। इस सीट की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रामपुर से दूरी बना कर चल रहे आजम को पत्नी तंजीन फातिमा के नामांकन के समय उनके साथ देखा गया। भू−माफिया घोषित होने और 85 मुकदमे दर्ज होने के दो महीने बाद सपा सांसद आजम खान 30 सितंबर 2019 को पहली बार रामपुर पहुंचे थे। बता दें कि 13 सितंबर को जब समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव रामपुर पहुंचे थे, तब भी आजम खान नहीं आए थे। अखिलेश यादव, आजम के समर्थन में ही रामपुर गए थे। आजम को अपने बीच देखकर सपा कार्यकर्ताओं में भी जोश भर गया। इस दौरान आजम खान जिंदाबाद के नारे भी लगे।
 
समाजवादी पार्टी ने अपने मजबूत किले रामपुर सदर की विधान सभा सीट को बचाने की जिम्मेदारी आजम खान को सौंपी है। आजम खान इस सीट से 9 बार विधायक रहे हैं। इतना ही नहीं 1993 के बाद से समाजवादी पार्टी यह सीट कभी नहीं हारी। लेकिन इस बार परिस्थितियां अलग हैं। 85 से ज्यादा मुकदमों में फंसे आजम खान और उनके परिवार के लिए यह सीट प्रतिष्ठा का भी विषय बन गई है। जहां एक ओर पार्टी को लगता है कि मुस्लिम बाहुल्य इस सीट पर आजम के खिलाफ हो रही कार्रवाई से सपा प्रत्याशी को सहानुभूति का लाभ मिलेगा, वहीं वह बीजेपी के साथ−साथ बसपा व कांग्रेस को भी करारा जवाब देने में सफल होगी।
खैर, यहां भू−माफिया घोषित किए जा चुके और 85 से अधिक मामलों में फंसे आजम खान के प्रति अखिलेश की नरमी और उनकी पत्नी तंजीन फातिमा को रामपुर सदर विधान सभा सीट से मैदान में उतारे जाने की समाजवादी पार्टी की रणनीति को भी समझना जरूरी है। रामपुर सदर सीट से तंजीन फातिमा सपा प्रत्याशी जरूर हैं, लेकिन उनके नाम पर फैसला काफी बाद में लिया गया। पहले यहां से डिंपल यादव और धमेन्द्र यादव के भी चुनाव लड़ने की चर्चा चली थी। मगर हमीरपुर विधान सभा उप चुनाव के नतीजों के बाद सब कुछ बदल गया। अखिलेश ने अंतिम समय में तंजीन फातिमा के नाम पर मोहर लगा दी। इसकी वजह थी, हमीरपुर चुनाव में बड़ी संख्या में सपा को मिले मुस्लिम वोट। हमीरपुर विधान सभा चुनाव से पूर्व तक समाजवादी पार्टी को काफी कमजोर माना जा रहा था, लेकिन हमीरपुर से सपा के लिए उम्मीद की नई किरण निकली। नतीजों ने साफ कर दिया है कि मुसलमान वोटर का समाजवादी पार्टी से विश्वास कम नहीं हुआ है। सपा से गठबंधन तोड़ने के बाद बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती मुस्लिम वोटरों का साथ मिलने का जो भरोसा लगाए बैठीं थी, उनका वह भरोसा पूरी तरह से टूट गया। ऐसा लगता है कि मुस्लिम वोटरों को मायावती की हालिया राजनीति जिसमें चाहे कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने का समर्थन की बात हो या फिर अन्य मुद्दों पर बीजेपी के साथ खड़ा दिखना हो, यह सब रास नहीं आया। ताजा घटनाक्रमों में आजम खान के खिलाफ जो आपराधिक मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं, उन पर भी अखिलेश यादव साफ कह चुके हैं कि उनकी सरकार बनते ही इन तमाम मुकदमों को वापस लिया जाएगा। जिसके बाद समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश और सपा की राजनीति में रामपुर के 'फन्ने खाँ' की क्या हैसियत है। इसीलिए तो तमाम किन्तु−परंतुओं और कई मामलों में जांच के दायरे में फंसे आजम खान की सियासी शख्सियत को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। आजम आज योगी सरकार की आंख की किरकिरी बने हैं तो पूर्व में भी उन पर कई बार आरोपों की बौछार होती रही है।
 
आजम का सियासी सफरनामा
 
1970 के दशक में आजम ने विश्वविद्यालय की राजनीति से सियासत में कदम रखा था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में महासचिव का चुनाव जीतने के बाद आजम अक्सर तमाम राजनैतिक मंचों पर नजर आने लगे थे। 1980 से 1992 के बीच आजम ने चार विधानसभा चुनावों के लिए जनता पार्टी सेक्युलर, लोकदल, जनता दल और जनता पार्टी का सहारा लिया था। हालांकि वह हर बार चुनाव हार गए। समाजवादी पार्टी के शीर्ष स्तर के नेताओं में शुमार आजम खान ने 1993 में मुलायम सिंह से प्रभावित होकर समाजवादी पार्टी का दामन थामा। राजनीति में आने से पहले आजम ने वकालत भी की थी। इमरजेंसी के दौरान महीनों तक आजम को जेल में रहना पड़ा था। जेल में एकान्त कारावास या कालकोठरी में रखे जाने वाले चुनिंदा कैदियों में आजम का भी नाम शामिल था।
 
नेताजी के लिए भी आसान नहीं था आजम को संभालना
 
पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के करीबी माने जाने वाले आजम ने अपनी आदत के अनुसार सपा के भीतर भी बागी तेवरों से परहेज नहीं किया। अमर सिंह को तवज्जो, जया प्रदा की उम्मीदवारी और कल्याण सिंह के पार्टी में आने की चर्चाओं जैसे मुद्दों पर आजम ने पार्टी से सीधा टकराव मोल लिया था, जिसके चलते उन्हें सपा से बाहर का भी रास्ता देखना पड़ा। आजम की अहमियत जानने वाले मुलायम ने जरूरत पड़ने पर आजम को वापस लेने में भी गुरेज नहीं किया।
 
पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत को जो लोग समझते हैं, उन्हें पता है कि कोई यों ही नहीं आजम खान बन जाता है। आजम ने रामपुर को उत्तर प्रदेश का सबसे खूबसूरत शहर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दबंग सियासी छवि के साथ ही लगातार जीतने और नामी उम्मीदवारों को हराने जैसी कई वजहों से आजम को एक बड़ा वर्ग 'रामपुर की सरकार' की उपाधि से नवाजता है। आजम खान अपने सियासी कॅरियर में नामचीनों से लोहा लेने में कभी पीछे नहीं रहे। कांग्रेस ने जब रामपुर के नवाब खानदान के वारिसों को टिकट दिया तब भी खान ने बाजी मारी और बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा ने जब सेलिब्रेटी और पूर्व सांसद जयाप्रदा को चुनाव मैदान में उतारा तो भी आजम ने एक लाख से ज्यादा वोटों से जीत दर्ज की। स्थानीय स्तर हो या प्रदेश स्तर, आजम खान अपनी ताकत और रसूख साबित करने में कभी कतराए नहीं। आजम के करीबियों का कहना है कि वह (आजम) एक बार फिर हीरे की तरह चमकते हुए नजर आएंगे। वर्ष 2013 में मुजफ्फरनगर कांड के समय आजम के रवैये के चलते अखिलेश सरकार को काफी बदनामी झेलनी पड़ी थी।
 
-संजय सक्सेना

कांग्रेस राजीव गांधी का वह बयान भी भूल गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि केंद्र से एक रूपया चलता है तो दस पैसे ही जमीन तक पहुंचते हैं। क्या कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि जिन राज्यों में उसकी सत्ता है, वहां योजनाओं का सौ प्रतिशत लाभ आम लोगों को मिल रहा है।

 

देश को दीमक की तरह खा रहे भ्रष्ट और नाकारा नौकरशाहों के साथ केंद्र सरकार सही सलूक कर रही है। केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार की सफाई अभियान में 15 वरिष्ठ दागियों को घर का रास्ता दिखाया है। इनमें आयकर विभाग के आयुक्त और प्रधान आयुक्त जैसे वरिष्ठ अफसर शामिल हैं। भ्रष्टाचार की गंदगी के तहत अभी तक चार बार सफाई अभियान चलाया जा चुका है। इसकी गाज अब 49 अफसरों पर गिरी है। सवाल यही है कि आखिर केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ इतने सख्त रवैये के बावजूद नौकरशाही में डर क्यों नहीं हैं। देश में उंगलियों पर गिने जाने लायक नौकरशाह ही भ्रष्टाचार की गंगा से बचे हुए हैं। बड़ी संख्या में किसी न किसी रूप में लिप्त अफसरों तक सरकार की पहुंच नहीं हो पा रही है। इनमें बड़ी संख्या उन नौकरशाहों की है, जो राज्यों में तैनात हैं। केंद्र के साथ जब तक राज्य भी ऐसा ही कदम नहीं उठाएंगे, तब तक भ्रष्टाचार में आकंठ तक डूबी बेलगाम नौकरशाही की नकेल नहीं कसी जा सकेगी।
 
राज्यों में भाजपा और अन्य दलों की सरकारें हैं। इनमें कांग्रेस की सरकारें भी शामिल हैं। आश्चर्य तो यह है कि जो कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते केंद्र से सत्ता से हाथ धो बैठी, उसे भी अभी तक यह बड़ा मुद्दा नजर नहीं आता। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस की तगड़ी घेराबंदी की। कांग्रेस से सफाई तक देते हुए नहीं बना। कांग्रेस ने राफेल की खरीद में भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाया किन्तु इसमें सफल नहीं हो सकी। कांग्रेस को अपने राज्यों में भ्रष्टाचार ना तो पहले दिखाई देता था और ना ही अब दिखाई दे रहा है। कांग्रेस ने एक बार भी भ्रष्टाचार को लेकर जीरो टोलरेंस की नीति नहीं अपनाई। कांग्रेस शासित राज्यों में ऐसे नौकरशाहों के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की गई। लगता यही है कि कांग्रेस की इस गंदगी की सफाई में कोई रूचि नहीं है। यह स्थिति तो तब है जब कांग्रेस आलाकमान सहित उनका कुटुम्ब भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहा है। इसके बावजूद कांग्रेस सबक सीखने को तैयार नहीं है।
कांग्रेस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का वह बयान भी भूल गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि केंद्र से एक रूपया चलता है तो दस पैसे ही जमीन तक पहुंचते हैं। क्या कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि जिन राज्यों में उसकी सत्ता है, वहां योजनाओं का सौ प्रतिशत लाभ आम लोगों को मिल रहा है। इन योजनाओं में सरकारी धन की एक−एक पाई सही जगह लग रही है। कांग्रेस की इसी चुप्पी की वजह से भाजपा अभी तक कांग्रेस के भ्रष्टाचार की कब्र खोद रही है। कांग्रेस ने पार्टी और राज्य स्तर पर भ्रष्टाचार को लेकर एक लाइन तक नहीं कही है। कांग्रेस की यह चुप्पी ही साबित करती है कि पार्टी के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। कांग्रेस में नेताओं की छवि का पैमाना भ्रष्टाचार नहीं रह गया है। बेशक उसके वरिष्ठ नेता ऐसे आरोपों में जेल की हवा ही क्यों ना खाएं।
 
कांग्रेस का भ्रष्टाचार के प्रति नजरिया इससे भी जाहिर होता है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद वरिष्ठ नेता पी चिदम्बरम से मिलने जा पहुंचीं। इससे जाहिर है कि पार्टी न सिर्फ चिदम्बरम का समर्थन कर रही है, बल्कि परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार को लेकर बेपरवाह है। चिदम्बरम ही नहीं कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भी इसी तरह के आरोपों का सामना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार को लेकर गर्त में जा रही छवि को लेकर कांग्रेस बेफिक्र नजर आती है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि कांग्रेस देश भर में पार्टी नेताओं को यह संदेश देती कि ऐसे एक भी आरोपी को किसी तरह का पद नहीं दिया जाएगा। कांग्रेस किसी भी सूरत में भ्रष्टाचारियों का बचाव नहीं करेगी। जिसे बचाव करना है वह अदालत में जाकर करे। अदालत से पाक साफ होने के बाद ही पार्टी में पुनः प्रवेश मिलेगा। इस तरह के पक्के इरादों के बाद कांग्रेस की छवि कुछ बेहतर हो सकती थी। इसे अपनाने की बजाए कांग्रेस आरोपी नेताओं का बचाव करके अपनी बची हुई छवि को ओर धूमिल कर रही है।
 
कांग्रेस की तरह ही दूसरे सत्ताधारी क्षेत्रीय दल भी भ्रष्टाचार पर लचीले रूख अपनाए हुए हैं। कांग्रेस की तरह ही अन्य क्षेत्रीय दल भी भ्रष्टाचारियों को घर बिठाने या जेल का रास्ता दिखाने के बजाए ऐसी कार्रवाइयों के लिए केंद्र सरकार को कोस रहे हैं। इन दलों ने कभी भी भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यूनतम साझा कार्यक्रम तक तय नहीं किया। लगता यही है कि भ्रष्टाचारियों का बचाव ही एकमात्र मुद्दा है जिस पर कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दलों की परोक्ष रूप से सहमति बन चुकी है। यही वजह रही कि बंगाल में पूर्व आईपीएस राजीव कुमार के मामले में कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय दलों ने ममता बनर्जी का बेशर्मी से समर्थन किया। तृणमूल के कई नेता इस मामले में आरोपी हैं। राजीव कुमार सारदा चिटफंड मामले के आरोपी हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो सभी हदें पार करते हुए राजीव के खिलाफ सीबीआई कार्रवाई को केंद्र सरकार की साजिश तक करार दिया और आरोपी अधिकारी के समर्थन में धरने−प्रदर्शन पर उतर आईं।
सीबीआई के क्षेत्रीय कार्यालय को राज्य पुलिस से डराने−धमकाने का प्रयास तक किया गया। इस पूरे तमाशे में गैरभाजपा दलों ने ममता का साथ दिया। अब जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने शिकंजा कसा तब ममता बेबस हो गई हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे शरद पवार की भी यही हालत है। अब पवार भी कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों की तरह केंद्र सरकार पर बदले की भावना से कार्रवाई का आरोप लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी भी अपने गिरेबां में झांकने की बजाय केंद्र सरकार पर ऐसे ही आरोप लगा रही है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के नेताओं को शायद यह भ्रम हो गया है कि चुनाव जीतने कर बड़ा नेता बन जाने से भ्रष्टाचार की कालिख धुल जाती है। जबकि अदालत की निगाहों में वह आरोपी ही क्यों न हो।
 
अदालत और कानून में ऐसे नेताओं को यकीन नहीं है। कानून के जरिए अदालत से सफाई हासिल करना इनका उद्देश्य नहीं है। इसके विपरीत जनसमर्थन के जरिए भ्रष्टाचार के कुकर्म पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनसमर्थन और कानून अलग−अलग हैं। अदालत कार्रवाई के दौरान यह नहीं देखती है कि किस नेता को कितना बड़ा समर्थन हासिल है। अदालतें कानून के हिसाब से ही र्कारवाई करती हैं। जिस गति से भाजपा आगे बढ़ रही है, यह जाहिर है कि यदि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने भ्रष्टाचार को लेकर लचीला रूख ही अपनाए रखा तो बचा हुआ जनसमर्थन भी गंवा बैठेंगे।
 
-योगेन्द्र योगी
1990 में कश्मीरी पंडितों का पलायन केवल हिंदुओं को घाटी से बाहर करना नही था, बल्कि हिन्दू धर्म को भी कश्मीर घाटी में समाप्त करने के पुरजोर प्रयास हुए। कश्यप ऋषि की धरती, जहां कभी वेदों की ऋचाएं गुंजा करती थीं, 19 जनवरी 1990 का काला दिवस ऐसा आया कि हिंदुओं को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। कथित तौर पर मस्जिदों की मीनारों से घोषणा हो रही थी, अपनी बहन, बच्ची, महिलाएं, धन दौलत छोड़कर चले जाओ, वरना अंजाम बुरा होगा। कई बहनों के शील भंग हुए, कई की इज्जत तार तार हुई, कई बच्चों को तलवारों की नोक पर मौत के घाट उतार दिया गया। कश्मीर घाटी से हिंदुओं का यह विस्थापन इस प्रकार हुआ था।
 
इसके साथ ही हिन्दू मन्दिरों की दुर्दशा शुरू हुई, मूर्तियों को तोड़ा गया, उन्हें ध्वस्त किया गया, उन पर कब्जे किए गए। तब क्या नहीं थी कश्मीरियत ? वास्तव में कश्मीरियत यह शब्द ही 80 से 90 के दशक में पैदा हुआ, इसके पहले सनातन धर्म व अध्यात्म कश्मीर की पहचान रही। हिन्दू राजाओं के शासन में कश्मीर फलता फूलता रहा। किन्तु कश्मीर में इस्लाम के उदय के साथ ही सनातन धर्म पर संकट मंडराने लगा, हिंदुओं पर अत्याचार होने लगे, कश्मीरियत पूरी तरह से इस्लामियत में बदल चुकी थी। अब केंद्र की मोदी सरकार ने जब कश्मीर में बंद और जीर्ण शीर्ण पड़े 50000 मन्दिरों का सर्वे करने, मरम्मत करने व प्राणप्रतिष्ठा करने की मंशा जताई है तो लगता है कि ऋषि कश्यप का आशीर्वाद फिर से कश्मीर को मिलने वाला है। शंख, घण्टे, घड़ियाल, वेदों की ऋचाओं से कश्मीर की धरती गुंजायमान होगी।
गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी की इस योजना ने देशभक्तों का मन प्रसन्न कर दिया। साथ ही कश्मीर के हर आम नागरिक के हित में महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं, जैसे हर गांव से 5-5 लोगों को सरकारी नौकरी दी जाएगी, मन्दिरों के साथ ही बन्द पड़े शिक्षण संस्थान, सिनेमाघर, सार्वजनिक स्थल, पुस्तकालय भी सरकार की सूची में हैं, इससे कश्मीर में आम जनजीवन और बेहतर हो सकेगा, यह आशा है। कश्मीर में अब तक एंटी करप्शन ब्यूरो नहीं था। प्रदेश की सरकारों को हर साल करोड़ों रूपये दिए गए किन्तु वह धन गया कहाँ ? इसकी जांच के लिए प्रदेश में एसीबी (एंटी करप्शन ब्यूरो) की स्थापना हुई है। इतना ही नहीं सरकार ने कहा है कि पाक अधिकृत कश्मीर भी हमारे एजेंडे में शामिल है। जिससे यह साफ होता है कि पाकिस्तान चाहे जितने आतंकी पाले, सेना प्रमुख पाकिस्तान को चेतावनी दे चुके हैं कि यदि पाकिस्तान ने फिर से कोई दुस्साहस किया तो बालाकोट जैसे दृश्य और देखने को मिलेंगे और अबकी बार हमले और भी भीषण होंगे।
 
भारत सरकार कश्मीर के हर बच्चे के हाथ में कम्प्यूटर और तिरंगा देखना चाहती है, अब यदि कोई तिरंगे का अपमान करता है तो अन्य राज्यों की तरह ही उसे दण्ड दिया जाएगा। जब गृह मंत्री यह संकल्प कर चुके हैं कि पाक अधिकृत कश्मीर भी हमारा है, जरूरत हुई तो उसके लिए जान भी दे देंगे, ऐसे समय गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी की यह घोषणा देश के बढ़ते मनोबल को दर्शाती है। मन्दिरों, विश्वविद्यालय आदि के पुनर्निर्माण से कश्मीर का पर्यटन और अधिक बढ़ेगा। कश्मीरी पंडित भी कश्मीर की खुली हवा में चैन की सांस ले सकेंगे। आजादी के बाद से ही हिन्दू समाज पर बढ़ते अत्याचारों में यह आदेश सुहाने मौसम की तरह है, अब कश्मीरी पंडितों को भी न्याय मिलने की उम्मीद जाग उठी है, उन्हें लगता है कि वे अपने पुराने बागानों में फिर से लौट सकेंगे। परन्तु क्या फिर से उसी इस्लामी उन्माद का डर उनके मन को कचोटता नहीं होगा ? इस डर को निकालने के लिए और भी प्रयास किए जाना जरूरी है। उन्हें स्वयं भी सक्षम होना होगा, घर, जमीन, छोड़ना समस्या का हल नहीं है। संघर्ष और वीरता के संस्कार को धारण करके ही कश्मीरी पंडित पुनः सम्मानजनक जीवन जी सकेंगे।
 
-मंगलेश सोनी
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने तीन तलाक से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के लिए छह हजार रुपए सालाना की आर्थिक मदद की घोषणा करके उस नारी समाज को अधिकार सम्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त किया है जो पुरुषों के अन्याय का शिकार रहता आया है। चिन्मयानन्द के खिलाफ बलात्कार का आरोप हो या हनी ट्रैप जैसी घटनाएं- देखा जा रहा है कि किसी भी क्षेत्र में गलत हथकंड़ों में महिला का दुरुपयोग किया जाता है, शोषण किया जाता है, उनके जीवन निर्वाह को बाधित किया जाता है, इज्जत लूटी जाती है और हत्या कर देना मानो आम बात हो गई है। आखिर कब तक नारी को दोयम दर्जा दिया जाता रहेगा ? कब तक वह जुल्मों का शिकार होती रहेगी ? कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी ? दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा ? यह एक ऐसा सवाल है जो हर मोड़ पर खड़ा होता है और निरूत्तर रह जाता है। लेकिन अब फिजाएं बदल रही है, नयी सोच एवं नई दिशाएं उद्घाटित हो रही हैं। नारी जाति में अभिनव स्फूर्ति, अटूट आत्मविश्वास एवं गौरवमयी जीवनशैली को उकेरने वाला योगी सरकार का यह निर्णय देश और दुनिया की मुस्लिम महिलाओं को एक नयी दिशा प्रदत्त करेगा, ऐसी आशा है।
 
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कहते हुए समाज में स्त्रियों के सम्मान की जो बात कही गई है, वैसा आज देखने को नहीं मिल रहा है। लेकिन योगी सरकार ने एक अपवाद के रूप में न केवल मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को बल्कि इसके साथ ही हिन्दू समाज की परित्यक्ता नारियों को भी इतनी ही राशि की मदद देने का ऐलान करके सम्पूर्ण नारी समाज में उम्मीद की, सम्मानपूर्ण जीवन की एवं स्वाभिमान की संभावनाओं को प्रकट किया है। इससे सम्पूर्ण नारी समाज को न्याय मिलने की संभावना बढ़ेगी। तीन तलाक कानून पर भारत की संसद की मुहर लग जाने के बाद ये सवाल उठाये जा रहे थे कि सरकार ने इस प्रकार अपमानित व पीड़ित महिला के आत्म-सम्मान को तो सुरक्षित करने का प्रबंध किया लेकिन उनके आर्थिक जीवन को आसान बनाने के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं किये हैं जिसकी वजह से कानून बन जाने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं को प्रताड़ना में जीना पड़ सकता है, परन्तु योगी के इस कदम से दूसरे राज्य भी प्रेरणा लेकर इसी प्रकार के फैसले करेंगे, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए। इससे नारी जीवन में एक नई भोर का आभास होगा।
 
तीन तलाक का मसला मुस्लिम महिलाओं के लिये एक विडम्बना एवं त्रासदी बन गया था। मुस्लिम पुरुषों द्वारा धर्म के नाम पर जिस तरह ‘इस्लामी तीन तलाक प्रथा’ का मजाक बनाकर एक ही झटके में तीन बार तीन तलाक लिखकर या बोल देने को परंपरा बना दिया गया था उससे इस्लाम द्वारा निर्धारित तलाक प्रक्रिया की ही धज्जियां उड़ रही थीं और महिला समाज यह दर्द, त्रासदी एवं पीड़ा झेलने के लिए मजबूर हो रही थी, लेकिन तीन तलाक के खिलाफ सख्त दंडात्मक कानून बनाये जाने से रोशनी मिलने के साथ-साथ यह जायज सवाल खड़ा हो रहा था कि अपने पतियों के खिलाफ ऐसे मामलों में कानून की शरण लेने वाली मुस्लिम महिलाओं का आर्थिक स्रोत क्या होगा जिससे वे अपना एवं अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण कर सकें ? योगी सरकार का ध्यान इस ओर गया तो निश्चित ही यह उनकी सकारात्मक एवं व्यापक सोच का द्योतक हैं। भले ही छह हजार रुपए वर्ष की धनराशि अपर्याप्त है। लेकिन प्रारंभ में यह मदद महिला को बेसहारा नहीं रहने देगी। इसके साथ ही श्री योगी ने ऐसी महिलाओं के शिक्षित होने पर उन्हें सरकारी नौकरियों में वरीयता देने और उनके बाल-बच्चों की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था करने का भी वादा किया है। ठीक यही सुविधाएं उन हिन्दू औरतों को भी दी जायेंगी जिनके पतियों ने उन्हें छोड़ कर अवैध रूप से दूसरी महिला के साथ रहने का जुगाड़ लगा लिया है। हिन्दू आचार संहिता के तहत दूसरा विवाह करने पर कठिन सजा का प्रावधान है और वित्तीय मदद का भी विधान है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं था।
 
तीन तलाक कानून की आलोचना करने वालों ने यह मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया कि भाजपा सरकार ने तीन तलाक निषेध जैसा कानून केवल मुस्लिम समाज में भय पैदा करने एवं उनके वोट हासिल करने के लिए बनाया है और इसका उद्देश्य उनके पारिवारिक मामलों में दखलन्दाजी करने का है, जबकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के मामले में भाजपा सरकार द्वारा कानून बनाना हो या योगी आदित्यनाथ द्वारा उठाया गया कदम हर लिहाज से काबिले तारीफ है, एक सराहनीय, ऐतिहासिक एवं मानवीय सोच से जुड़ा निर्णय है जो मुस्लिम समाज की उन महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बना सकेगा, जिनके सर पर कल तक तीन तलाक की तलवार लटकी रहती थी। इस समाज में शिक्षा की कमी की वजह से कानून बन जाने के बावजूद तीन तलाक हो रहे हैं। इससे जुडे़ आंकड़े जारी किये गये हैं कि पिछले वर्ष के दौरान तीन तलाक के 273 मामले अकेले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज हुए हैं।
नारी को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए क्योंकि नारी अपनी भीतर संपूर्णता को समेटे हुए जीवन की कठिनाइयों की राह पर अकेले आगे बढ़ते हुए पूरा सफर तय कर देती है। ना माथे पर शिकन, ना आंखों में शिकायत, बस होठों पर मधुर मुस्कराहट बिखेरते हुए धैर्य की मूर्ति-सी प्रतीत होती है। भारत देश में नारी का स्थान सदा से ही ऊंचा रहा है। सभी धर्म ग्रंथों में नारी का दर्जा श्रेष्ठ ही रहा है और नारी को देवी का दर्जा भी दिया है इस देश में। समय के साथ-साथ नारी ने अपनी भूमिका हर जगह पर निभाई है। सीता ने संपूर्ण नारी जाति को संस्कार व शालीनता की राह दिखाई तो रणक्षेत्र में दानवों का दलन करने वाली दुर्गा भी बनी। सावित्री बनकर यमराज को भी अपना निर्णय बदलने पर मजबूर कर दिया, तो युद्ध के मैदान में झांसी की रानी बनकर पूरी नारी जाति को अपने अंदर छिपी हुई असीम शक्ति को पहचानने के लिए भी प्रेरित किया। लेकिन अब तक उसी देश के मुस्लिम समाज में नारी की स्थिति दयनीय बनी हुई थी। मुस्लिम महिलाएं तो बस एक अबला-सी बन कर रह गयी, उन्होंने शायद धार्मिक स्थितियों के आगे समर्पण कर दिया था लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, वहां के जन-जीवन में नारी-नारी के बीच के भेद को समाप्त करने का जो वातावरण बना है, उसे अभी और आगे बढ़ाना है। मुस्लिम महिलाएं स्थितियों से समझौता नहीं, संघर्ष करे। सामने लंबा संघर्ष है, रास्ता भी कठिन है, लेकिन संघर्ष सफल भी होगा और कठिनाइयों के बीच से रास्ता भी निकलेगा। आज जबकि हर आंख में रोशन है नये भारत का स्वप्न! नई पीढ़ी हो या बुजुर्ग, सब चाहते हैं देश सार्थक बदलाव की ओर बढ़े। इंसान-इंसान के बीच बढ़ रही दूरियां खत्म हो, साम्प्रदायिक भेदभाव समाप्त हो। मोदी एवं योगी का यह संकल्प तभी सफल होगा जब मुस्लिम महिलाएं स्वयं जागृत होगी। यदि नारी को वह नहीं मिल रहा है जिसकी वह अधिकारी है तो उसमें उसका स्वयं का दोष भी है। उसे उसका आसानी से हो रहा दुरुपयोग रोकना होगा, नारी को अपनी गरिमा को स्वयं पहचानना होगा। नारी को सनातन मर्यादा का निर्वाह करते हुए वर्तमान काल के अनुरूप ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण करना होगा। उसे नारी होने का रोना छोड़कर स्वयं अपने उत्थान के लिए आगे बढ़ना होगा और नारी होने का लाभ शॉर्टकट से लेने की प्रवृत्ति भी छोड़नी होगी। मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है, पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प ‘औरत’ को ही ‘औरत’ के लिए जागना होगा। यह जागृति ही मुस्लिम महिलाओं के अभ्युदय की दिशा तय करेंगी।
 
-ललित गर्ग
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने तीन तलाक से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के लिए छह हजार रुपए सालाना की आर्थिक मदद की घोषणा करके उस नारी समाज को अधिकार सम्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त किया है जो पुरुषों के अन्याय का शिकार रहता आया है। चिन्मयानन्द के खिलाफ बलात्कार का आरोप हो या हनी ट्रैप जैसी घटनाएं- देखा जा रहा है कि किसी भी क्षेत्र में गलत हथकंड़ों में महिला का दुरुपयोग किया जाता है, शोषण किया जाता है, उनके जीवन निर्वाह को बाधित किया जाता है, इज्जत लूटी जाती है और हत्या कर देना मानो आम बात हो गई है। आखिर कब तक नारी को दोयम दर्जा दिया जाता रहेगा ? कब तक वह जुल्मों का शिकार होती रहेगी ? कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी ? दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा ? यह एक ऐसा सवाल है जो हर मोड़ पर खड़ा होता है और निरूत्तर रह जाता है। लेकिन अब फिजाएं बदल रही है, नयी सोच एवं नई दिशाएं उद्घाटित हो रही हैं। नारी जाति में अभिनव स्फूर्ति, अटूट आत्मविश्वास एवं गौरवमयी जीवनशैली को उकेरने वाला योगी सरकार का यह निर्णय देश और दुनिया की मुस्लिम महिलाओं को एक नयी दिशा प्रदत्त करेगा, ऐसी आशा है।
 
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कहते हुए समाज में स्त्रियों के सम्मान की जो बात कही गई है, वैसा आज देखने को नहीं मिल रहा है। लेकिन योगी सरकार ने एक अपवाद के रूप में न केवल मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को बल्कि इसके साथ ही हिन्दू समाज की परित्यक्ता नारियों को भी इतनी ही राशि की मदद देने का ऐलान करके सम्पूर्ण नारी समाज में उम्मीद की, सम्मानपूर्ण जीवन की एवं स्वाभिमान की संभावनाओं को प्रकट किया है। इससे सम्पूर्ण नारी समाज को न्याय मिलने की संभावना बढ़ेगी। तीन तलाक कानून पर भारत की संसद की मुहर लग जाने के बाद ये सवाल उठाये जा रहे थे कि सरकार ने इस प्रकार अपमानित व पीड़ित महिला के आत्म-सम्मान को तो सुरक्षित करने का प्रबंध किया लेकिन उनके आर्थिक जीवन को आसान बनाने के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं किये हैं जिसकी वजह से कानून बन जाने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं को प्रताड़ना में जीना पड़ सकता है, परन्तु योगी के इस कदम से दूसरे राज्य भी प्रेरणा लेकर इसी प्रकार के फैसले करेंगे, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए। इससे नारी जीवन में एक नई भोर का आभास होगा।
 
तीन तलाक का मसला मुस्लिम महिलाओं के लिये एक विडम्बना एवं त्रासदी बन गया था। मुस्लिम पुरुषों द्वारा धर्म के नाम पर जिस तरह ‘इस्लामी तीन तलाक प्रथा’ का मजाक बनाकर एक ही झटके में तीन बार तीन तलाक लिखकर या बोल देने को परंपरा बना दिया गया था उससे इस्लाम द्वारा निर्धारित तलाक प्रक्रिया की ही धज्जियां उड़ रही थीं और महिला समाज यह दर्द, त्रासदी एवं पीड़ा झेलने के लिए मजबूर हो रही थी, लेकिन तीन तलाक के खिलाफ सख्त दंडात्मक कानून बनाये जाने से रोशनी मिलने के साथ-साथ यह जायज सवाल खड़ा हो रहा था कि अपने पतियों के खिलाफ ऐसे मामलों में कानून की शरण लेने वाली मुस्लिम महिलाओं का आर्थिक स्रोत क्या होगा जिससे वे अपना एवं अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण कर सकें ? योगी सरकार का ध्यान इस ओर गया तो निश्चित ही यह उनकी सकारात्मक एवं व्यापक सोच का द्योतक हैं। भले ही छह हजार रुपए वर्ष की धनराशि अपर्याप्त है। लेकिन प्रारंभ में यह मदद महिला को बेसहारा नहीं रहने देगी। इसके साथ ही श्री योगी ने ऐसी महिलाओं के शिक्षित होने पर उन्हें सरकारी नौकरियों में वरीयता देने और उनके बाल-बच्चों की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था करने का भी वादा किया है। ठीक यही सुविधाएं उन हिन्दू औरतों को भी दी जायेंगी जिनके पतियों ने उन्हें छोड़ कर अवैध रूप से दूसरी महिला के साथ रहने का जुगाड़ लगा लिया है। हिन्दू आचार संहिता के तहत दूसरा विवाह करने पर कठिन सजा का प्रावधान है और वित्तीय मदद का भी विधान है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं था।
 
तीन तलाक कानून की आलोचना करने वालों ने यह मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया कि भाजपा सरकार ने तीन तलाक निषेध जैसा कानून केवल मुस्लिम समाज में भय पैदा करने एवं उनके वोट हासिल करने के लिए बनाया है और इसका उद्देश्य उनके पारिवारिक मामलों में दखलन्दाजी करने का है, जबकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के मामले में भाजपा सरकार द्वारा कानून बनाना हो या योगी आदित्यनाथ द्वारा उठाया गया कदम हर लिहाज से काबिले तारीफ है, एक सराहनीय, ऐतिहासिक एवं मानवीय सोच से जुड़ा निर्णय है जो मुस्लिम समाज की उन महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बना सकेगा, जिनके सर पर कल तक तीन तलाक की तलवार लटकी रहती थी। इस समाज में शिक्षा की कमी की वजह से कानून बन जाने के बावजूद तीन तलाक हो रहे हैं। इससे जुडे़ आंकड़े जारी किये गये हैं कि पिछले वर्ष के दौरान तीन तलाक के 273 मामले अकेले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज हुए हैं।
नारी को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए क्योंकि नारी अपनी भीतर संपूर्णता को समेटे हुए जीवन की कठिनाइयों की राह पर अकेले आगे बढ़ते हुए पूरा सफर तय कर देती है। ना माथे पर शिकन, ना आंखों में शिकायत, बस होठों पर मधुर मुस्कराहट बिखेरते हुए धैर्य की मूर्ति-सी प्रतीत होती है। भारत देश में नारी का स्थान सदा से ही ऊंचा रहा है। सभी धर्म ग्रंथों में नारी का दर्जा श्रेष्ठ ही रहा है और नारी को देवी का दर्जा भी दिया है इस देश में। समय के साथ-साथ नारी ने अपनी भूमिका हर जगह पर निभाई है। सीता ने संपूर्ण नारी जाति को संस्कार व शालीनता की राह दिखाई तो रणक्षेत्र में दानवों का दलन करने वाली दुर्गा भी बनी। सावित्री बनकर यमराज को भी अपना निर्णय बदलने पर मजबूर कर दिया, तो युद्ध के मैदान में झांसी की रानी बनकर पूरी नारी जाति को अपने अंदर छिपी हुई असीम शक्ति को पहचानने के लिए भी प्रेरित किया। लेकिन अब तक उसी देश के मुस्लिम समाज में नारी की स्थिति दयनीय बनी हुई थी। मुस्लिम महिलाएं तो बस एक अबला-सी बन कर रह गयी, उन्होंने शायद धार्मिक स्थितियों के आगे समर्पण कर दिया था लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, वहां के जन-जीवन में नारी-नारी के बीच के भेद को समाप्त करने का जो वातावरण बना है, उसे अभी और आगे बढ़ाना है। मुस्लिम महिलाएं स्थितियों से समझौता नहीं, संघर्ष करे। सामने लंबा संघर्ष है, रास्ता भी कठिन है, लेकिन संघर्ष सफल भी होगा और कठिनाइयों के बीच से रास्ता भी निकलेगा। आज जबकि हर आंख में रोशन है नये भारत का स्वप्न! नई पीढ़ी हो या बुजुर्ग, सब चाहते हैं देश सार्थक बदलाव की ओर बढ़े। इंसान-इंसान के बीच बढ़ रही दूरियां खत्म हो, साम्प्रदायिक भेदभाव समाप्त हो। मोदी एवं योगी का यह संकल्प तभी सफल होगा जब मुस्लिम महिलाएं स्वयं जागृत होगी। यदि नारी को वह नहीं मिल रहा है जिसकी वह अधिकारी है तो उसमें उसका स्वयं का दोष भी है। उसे उसका आसानी से हो रहा दुरुपयोग रोकना होगा, नारी को अपनी गरिमा को स्वयं पहचानना होगा। नारी को सनातन मर्यादा का निर्वाह करते हुए वर्तमान काल के अनुरूप ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण करना होगा। उसे नारी होने का रोना छोड़कर स्वयं अपने उत्थान के लिए आगे बढ़ना होगा और नारी होने का लाभ शॉर्टकट से लेने की प्रवृत्ति भी छोड़नी होगी। मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है, पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प ‘औरत’ को ही ‘औरत’ के लिए जागना होगा। यह जागृति ही मुस्लिम महिलाओं के अभ्युदय की दिशा तय करेंगी।
 
-ललित गर्ग
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने तीन तलाक से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के लिए छह हजार रुपए सालाना की आर्थिक मदद की घोषणा करके उस नारी समाज को अधिकार सम्पन्न करने का मार्ग प्रशस्त किया है जो पुरुषों के अन्याय का शिकार रहता आया है। चिन्मयानन्द के खिलाफ बलात्कार का आरोप हो या हनी ट्रैप जैसी घटनाएं- देखा जा रहा है कि किसी भी क्षेत्र में गलत हथकंड़ों में महिला का दुरुपयोग किया जाता है, शोषण किया जाता है, उनके जीवन निर्वाह को बाधित किया जाता है, इज्जत लूटी जाती है और हत्या कर देना मानो आम बात हो गई है। आखिर कब तक नारी को दोयम दर्जा दिया जाता रहेगा ? कब तक वह जुल्मों का शिकार होती रहेगी ? कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी ? दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा ? यह एक ऐसा सवाल है जो हर मोड़ पर खड़ा होता है और निरूत्तर रह जाता है। लेकिन अब फिजाएं बदल रही है, नयी सोच एवं नई दिशाएं उद्घाटित हो रही हैं। नारी जाति में अभिनव स्फूर्ति, अटूट आत्मविश्वास एवं गौरवमयी जीवनशैली को उकेरने वाला योगी सरकार का यह निर्णय देश और दुनिया की मुस्लिम महिलाओं को एक नयी दिशा प्रदत्त करेगा, ऐसी आशा है।
 
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ कहते हुए समाज में स्त्रियों के सम्मान की जो बात कही गई है, वैसा आज देखने को नहीं मिल रहा है। लेकिन योगी सरकार ने एक अपवाद के रूप में न केवल मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को बल्कि इसके साथ ही हिन्दू समाज की परित्यक्ता नारियों को भी इतनी ही राशि की मदद देने का ऐलान करके सम्पूर्ण नारी समाज में उम्मीद की, सम्मानपूर्ण जीवन की एवं स्वाभिमान की संभावनाओं को प्रकट किया है। इससे सम्पूर्ण नारी समाज को न्याय मिलने की संभावना बढ़ेगी। तीन तलाक कानून पर भारत की संसद की मुहर लग जाने के बाद ये सवाल उठाये जा रहे थे कि सरकार ने इस प्रकार अपमानित व पीड़ित महिला के आत्म-सम्मान को तो सुरक्षित करने का प्रबंध किया लेकिन उनके आर्थिक जीवन को आसान बनाने के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं किये हैं जिसकी वजह से कानून बन जाने के बावजूद मुस्लिम महिलाओं को प्रताड़ना में जीना पड़ सकता है, परन्तु योगी के इस कदम से दूसरे राज्य भी प्रेरणा लेकर इसी प्रकार के फैसले करेंगे, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए। इससे नारी जीवन में एक नई भोर का आभास होगा।
 
तीन तलाक का मसला मुस्लिम महिलाओं के लिये एक विडम्बना एवं त्रासदी बन गया था। मुस्लिम पुरुषों द्वारा धर्म के नाम पर जिस तरह ‘इस्लामी तीन तलाक प्रथा’ का मजाक बनाकर एक ही झटके में तीन बार तीन तलाक लिखकर या बोल देने को परंपरा बना दिया गया था उससे इस्लाम द्वारा निर्धारित तलाक प्रक्रिया की ही धज्जियां उड़ रही थीं और महिला समाज यह दर्द, त्रासदी एवं पीड़ा झेलने के लिए मजबूर हो रही थी, लेकिन तीन तलाक के खिलाफ सख्त दंडात्मक कानून बनाये जाने से रोशनी मिलने के साथ-साथ यह जायज सवाल खड़ा हो रहा था कि अपने पतियों के खिलाफ ऐसे मामलों में कानून की शरण लेने वाली मुस्लिम महिलाओं का आर्थिक स्रोत क्या होगा जिससे वे अपना एवं अपने बाल-बच्चों का भरण-पोषण कर सकें ? योगी सरकार का ध्यान इस ओर गया तो निश्चित ही यह उनकी सकारात्मक एवं व्यापक सोच का द्योतक हैं। भले ही छह हजार रुपए वर्ष की धनराशि अपर्याप्त है। लेकिन प्रारंभ में यह मदद महिला को बेसहारा नहीं रहने देगी। इसके साथ ही श्री योगी ने ऐसी महिलाओं के शिक्षित होने पर उन्हें सरकारी नौकरियों में वरीयता देने और उनके बाल-बच्चों की निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था करने का भी वादा किया है। ठीक यही सुविधाएं उन हिन्दू औरतों को भी दी जायेंगी जिनके पतियों ने उन्हें छोड़ कर अवैध रूप से दूसरी महिला के साथ रहने का जुगाड़ लगा लिया है। हिन्दू आचार संहिता के तहत दूसरा विवाह करने पर कठिन सजा का प्रावधान है और वित्तीय मदद का भी विधान है, लेकिन मुस्लिम महिलाओं के सन्दर्भ में ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं था।
 
तीन तलाक कानून की आलोचना करने वालों ने यह मुद्दा भी जोर-शोर से उठाया कि भाजपा सरकार ने तीन तलाक निषेध जैसा कानून केवल मुस्लिम समाज में भय पैदा करने एवं उनके वोट हासिल करने के लिए बनाया है और इसका उद्देश्य उनके पारिवारिक मामलों में दखलन्दाजी करने का है, जबकि ऐसा नहीं है। मुस्लिम महिलाओं के मामले में भाजपा सरकार द्वारा कानून बनाना हो या योगी आदित्यनाथ द्वारा उठाया गया कदम हर लिहाज से काबिले तारीफ है, एक सराहनीय, ऐतिहासिक एवं मानवीय सोच से जुड़ा निर्णय है जो मुस्लिम समाज की उन महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बना सकेगा, जिनके सर पर कल तक तीन तलाक की तलवार लटकी रहती थी। इस समाज में शिक्षा की कमी की वजह से कानून बन जाने के बावजूद तीन तलाक हो रहे हैं। इससे जुडे़ आंकड़े जारी किये गये हैं कि पिछले वर्ष के दौरान तीन तलाक के 273 मामले अकेले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज हुए हैं।
नारी को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए क्योंकि नारी अपनी भीतर संपूर्णता को समेटे हुए जीवन की कठिनाइयों की राह पर अकेले आगे बढ़ते हुए पूरा सफर तय कर देती है। ना माथे पर शिकन, ना आंखों में शिकायत, बस होठों पर मधुर मुस्कराहट बिखेरते हुए धैर्य की मूर्ति-सी प्रतीत होती है। भारत देश में नारी का स्थान सदा से ही ऊंचा रहा है। सभी धर्म ग्रंथों में नारी का दर्जा श्रेष्ठ ही रहा है और नारी को देवी का दर्जा भी दिया है इस देश में। समय के साथ-साथ नारी ने अपनी भूमिका हर जगह पर निभाई है। सीता ने संपूर्ण नारी जाति को संस्कार व शालीनता की राह दिखाई तो रणक्षेत्र में दानवों का दलन करने वाली दुर्गा भी बनी। सावित्री बनकर यमराज को भी अपना निर्णय बदलने पर मजबूर कर दिया, तो युद्ध के मैदान में झांसी की रानी बनकर पूरी नारी जाति को अपने अंदर छिपी हुई असीम शक्ति को पहचानने के लिए भी प्रेरित किया। लेकिन अब तक उसी देश के मुस्लिम समाज में नारी की स्थिति दयनीय बनी हुई थी। मुस्लिम महिलाएं तो बस एक अबला-सी बन कर रह गयी, उन्होंने शायद धार्मिक स्थितियों के आगे समर्पण कर दिया था लेकिन भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है, वहां के जन-जीवन में नारी-नारी के बीच के भेद को समाप्त करने का जो वातावरण बना है, उसे अभी और आगे बढ़ाना है। मुस्लिम महिलाएं स्थितियों से समझौता नहीं, संघर्ष करे। सामने लंबा संघर्ष है, रास्ता भी कठिन है, लेकिन संघर्ष सफल भी होगा और कठिनाइयों के बीच से रास्ता भी निकलेगा। आज जबकि हर आंख में रोशन है नये भारत का स्वप्न! नई पीढ़ी हो या बुजुर्ग, सब चाहते हैं देश सार्थक बदलाव की ओर बढ़े। इंसान-इंसान के बीच बढ़ रही दूरियां खत्म हो, साम्प्रदायिक भेदभाव समाप्त हो। मोदी एवं योगी का यह संकल्प तभी सफल होगा जब मुस्लिम महिलाएं स्वयं जागृत होगी। यदि नारी को वह नहीं मिल रहा है जिसकी वह अधिकारी है तो उसमें उसका स्वयं का दोष भी है। उसे उसका आसानी से हो रहा दुरुपयोग रोकना होगा, नारी को अपनी गरिमा को स्वयं पहचानना होगा। नारी को सनातन मर्यादा का निर्वाह करते हुए वर्तमान काल के अनुरूप ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण करना होगा। उसे नारी होने का रोना छोड़कर स्वयं अपने उत्थान के लिए आगे बढ़ना होगा और नारी होने का लाभ शॉर्टकट से लेने की प्रवृत्ति भी छोड़नी होगी। मान्य सिद्धांत है कि आदर्श ऊपर से आते हैं, क्रांति नीचे से होती है, पर अब दोनों के अभाव में तीसरा विकल्प ‘औरत’ को ही ‘औरत’ के लिए जागना होगा। यह जागृति ही मुस्लिम महिलाओं के अभ्युदय की दिशा तय करेंगी।
 
-ललित गर्ग
नीतीश कुमार, सुशील मोदी के सामने तेजस्वी यादव क्यों बौने साबित हो रहे हैं ? क्या सिर्फ पीढ़ीगत अंतर के चलते ? अरुण जेटली के बाद दिल्ली बीजेपी में शून्य-सा क्यों है ? क्यों मनोज तिवारी हल्के और प्रभावहीन दिखते हैं वहां ? दिग्विजय सिंह की तरह मप्र की सियासत में पकड़ दूसरी पीढ़ी के कांग्रेस नेताओं की क्यों नहीं है ? नरेंद्र सिंह तोमर ग्वालियर की एक तंग गली से निकल कर आज देश की दर्जनभर नीति निर्धारक केन्द्रीय समितियों के सदस्य कैसे हैं? शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, कैलाश विजयवर्गीय, रमेश चेन्नीथला, रीता बहुगुणा, मुकुल वासनिक, अजय माकन, लालमुनि चौबे, रामविलास पासवान, शरद यादव, तारिक अनवर, प्रकाश जावड़ेकर, हुकुमदेव यादव, मनोज सिन्हा, गोपीनाथ मुंडे, रविशंकर प्रसाद जैसे अनेक नामों में वैचारिक विभिन्नता के बाबजूद एक साम्य है। वह यह कि सभी छात्र राजनीति से निकल कर आये हुए हैं। सभी नेताओं के पास अपने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संघर्ष का बीज आधार मौजूद है, अधिकतर जेपी आंदोलन के सहयात्री भी रहे हैं।
 
 
आज के नेता तेजस्वी यादव, अनुराग ठाकुर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, सचिन पायलट, पंकजा मुंडे, अभिषेक सिंह, दुष्यंत सिंह, पंकज सिंह, अगाथा संगमा, दुष्यंत चौटाला, रणदीप सुरजेवाला, मनीष तिवारी, सुखबीर बादल, सुप्रिया सुले जैसे नेताओं की नई पीढ़ी में भी एक साम्य है। ये सब अपने पिता या परिजनों की विरासत के प्रतिनिधि हैं, किसी के पास जनसंघर्षों की कोई पृष्ठभूमि नहीं है। इन्हें सब कुछ विरासत में मिल गया इसलिये इस नई पीढ़ी के साथ आप प्रशासन और राजनीति में उन सरोकारों को नहीं देख सकते हैं जो जम्हूरियत के लिये जरूरी है। सवाल यह है कि क्या भारत में छात्र राजनीति के दिन लद गए हैं ? क्या छात्र राजनीति की उपयोगिता खत्म हो चुकी है ? इसके दोनों आयाम हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे महान शिक्षा शास्त्री मानते थे कि विश्वविद्यालय में राजनीति का कोई स्थान नहीं होना चाहिये वे छात्र संघों के विरुद्ध थे। वहीं देश में एक वर्ग ऐसा भी है जिसने छात्र संघों को लोकतंत्र की पाठशाला निरूपित किया है। जेपी, लोहिया जैसे महान नेताओं ने खुद आगे आकर छात्र आंदोलनों का नेतृत्व किया।
आज देश की संसदीय राजनीति में इस पाठशाला से निकले कई मेधावी छात्र हमारे विविध क्षेत्रों में योगदान दे रहे हैं। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि कॉलेज, विश्वविद्यालय अगर छात्र संघों से दूर रहे तो शैक्षणिक माहौल और गुणवत्ता सही रहती है। सवाल यह है कि बिहार में अस्सी के दशक से छात्र संघ चुनाव नहीं हो रहे हैं, मप्र में भी 1991 के बाद से बंद प्रायः ही है। शेष जगह अब जिस लिंगदोह कमेटी के आधार पर कॉलेजों में चुनाव होते हैं उनका कोई औचित्य इसलिये नहीं है क्योंकि वे अनुशासन के नाम पर इतने सख्त नियमों में बांध दिए गए हैं कि वहां नेतृत्व और सँघर्ष का कॉलम ही नहीं रह गया है। अगर यह मान लिया जाए कि छात्र संघों से कैम्पस की गुणवत्ता खराब होती है तब क्या बिहार, मप्र या दूसरे राज्यों में पिछले 30 वर्षों में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का ट्रैक रिकॉर्ड कोई विशिष्ट उपलब्धि भरा रहा है ? अखिल भारतीय सेवाओं में आज भी मप्र का प्रतिनिधित्व सबसे निचले पायदान पर है राज्य की आबादी के अनुपात से।
 
बिहार, मप्र, बंगाल जैसे बड़े राज्यों के विश्वविद्यालयों में सामाजिक, आर्थिक, मानविकी या प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में कोई महानतम उपलब्धियां हासिल की हो ऐसा भी नहीं है। हाल ही में जो वैश्विक रेटिंग जारी की गई है उनमें भारत के विश्वविद्यालयों का नाम नहीं हैं। जाहिर है इस तर्क को स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है कि छात्रसंघ कैम्पसों में अकादमिक गुणवत्ता को प्रदूषित करते हैं। सच तो यही है कि छात्र संघ नेतृत्व की पाठशाला है बशर्ते सरकारें ईमानदारी से अपनी भूमिका को तय कर लें। यह समाज में नैसर्गिक नेतृत्व क्षमता वाले तबके को प्रतिभा प्रकटीकरण का मंच है जिसके माध्यम से लोकतंत्र के लिये मजबूत जमीन का निर्माण होता है। पर सवाल यह है कि क्या सरकारें ऐसा चाहती हैं? आज लोकतंत्र का स्थाई चरित्र बन चुकी है सत्ता की निरंतरता। सहमति और असहमति की जिस बुनियाद पर जम्हूरियत चलती है उसे कुचलने का प्रयास सम्मिलित रूप से किया जा रहा है।
 
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद आज दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। अरुण जेटली से लेकर उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू, शिवराज सिंह चौहान, नितिन गडकरी, देवेंद्र फडणवीस, जेपी नड्डा, नरेंद्र सिंह तोमर, रमन सिंह, गिरिराज सिंह, रविशंकर प्रसाद, सदानन्द गौडा जैसे बड़े नेता इसी परिषद से निकलकर आज मुख्यधारा की राजनीति में स्थापित हुए हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि बीजेपी शासित किसी भी राज्य में छात्रसंघों की मौलिक बहाली पर पिछले 30 सालों में कोई काम नहीं हुआ। कमोबेश आज कांग्रेस के लगभग सभी 60 प्लस के बड़े नेता एनएसयूआई की देन हैं। बावजूद दोनों दलों की सरकारों का रिकॉर्ड छात्रसंघ के मामले में बेईमानी भरा है। सच्चाई यह है कि सत्ता के स्थाई भाव ने राजनीतिक दलों को नेतृत्व के फैलाव से रोके रखा है आज कोई भी जेपी, दीनदयाल या लोहिया की तरह व्यवस्था परिवर्तन की बात नहीं करना चाहता है।
 
सत्ता के लिये परिवारवाद की बीमारी ने भी राजनीतिक दलों को एक तरह से बंधक बना लिया है। क्रोनी कैपिटलिज्म ने आज हमारे लोकतंत्र को शिकंजे में ले लिया है यही कारण है कि संसदीय लोकतंत्र की इस व्यवस्था में बुनियादी रूप से लोकतांत्रिक भाव गायब है। जातिवाद, परिवारवाद और पूंजीवाद के शॉर्टकट मॉडल ने संसदीय राजनीति का चेहरा ही बदल कर रख दिया। छात्रसंघ के जरिये जिस नेतृत्व को समाज आकार देता था उससे सत्ता के स्थाई भाव को चोट पहुँचना लाजमी है इसलिये समवेत रूप से इस विषय पर सहमति कोई आश्चर्य पैदा नहीं करती है। तर्क दिया जाता है कि आज वैश्वीकरण के दौर में काबिल बच्चों के पास अपना कैरियर बनाने के फेर में राजनीति के लिये समय नहीं है लेकिन इस तथ्य को अनदेखा कर दिया जाता है कि देश की सभी नीतियों को बनाने का काम तो आखिर संसदीय व्यवस्था में नेताओं को ही करना है। फिर राजनीति से शुद्धता, बुद्धिमानी औऱ चरित्र की अपेक्षा का नैतिक आधार क्या है?
कैम्पसों को राजनीति से दूर रखने का तर्क भी बड़ा सुविधाभोगी है क्योंकि आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में सर्वोच्च नीति निर्धारक निकाय "कार्यपरिषद" ही हैं जिनमें सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल और मुख्यमंत्री करते हैं, ये सभी नियुक्ति विशुद्ध राजनीतिक आधारों पर होती है। फिर कैसे कहा जा सकता है कि कैम्पस में सरकारें राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं करती हैं। मप्र में तो हर सरकारी कॉलेज में जनभागीदारी समिति के गठन के प्रावधान हैं जिनमें अध्यक्ष की नियुक्ति सरकार करती है और कॉलेज का प्राचार्य सदस्य सचिव की हैसियत से काम करता है। जनभागीदारी समितियां सरकारों के एजेंडे को ही आगे बढ़ाती हैं क्योंकि वे प्रशासन से लेकर प्रबन्धन तक में सर्वेसर्वा हैं। जाहिर है कॉलेजों से लेकर विश्वविद्यालयों तक सरकारें अपनी सीधी पकड़ बनाए हुए हैं लेकिन अपनी शर्तों पर। इसलिए यह कहना कि सरकारें कैम्पसों में राजनीतिक दखल रोकने के नाम पर छात्रसंघों को प्राथमिकता नहीं देती हैं सफेद झूठ से ज्यादा कुछ नहीं है। हकीकत यही है कि आज के संसदीय मॉडल में सभी दल पूंजी और परिवारों के बंधक हैं और जनभागीदारी के नाम पर केवल शर्ताधीन भागीदारी को ही इजाजत देते हैं।
 
-डॉ. अजय खेमरिया
(लेखक छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं)

बिहार में 2020 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और सबकी दिलचस्पी इस बात को लेकर है कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू अध्यक्ष नीतीश कुमार NDA में रहकर चुनाव लड़ेंगे या फिर पाला बदल लेंगे। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद इस बात को साफ कहा गया कि जदयू, भाजपा और लोजपा एक साथ मिलकर 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। लेकिन एक बात यह भी निकल कर सामने आया कि जदयू बिहार के बाहर NDA का हिस्सा नहीं रहेगी। नीतीश कुमार इस सवाल का जवाब देने से बच रहे हैं और ज्यादा पूछने पर वह सिर्फ यह कहकर निकल लेते हैं कि वह काम पर फोकस कर रहे हैं ना कि चुनाव पर। जब चुनाव आएगा तब देखा जाएगा। नीतीश का यह बयान और भाजपा-जदयू के रिश्तों में आई तल्खी 2020 में नए राजनीतिक समीकरण को बल दे रहे हैं। भले ही दोनों दल सार्वजनिक तौर पर ऐसे किसी भी कयास को खारिज कर रहे हैं पर यह भी सच है कि दोनों के बीच शीत युद्ध चरम पर है, खासकर के 30 मई 2019 के बाद।

 

 

लोकसभा चुनाव के परिणाम वाले दिन बिहार में NDA की बढ़त की खबर आते ही जदयू के पटना कार्यालय में जश्न शुरू हो गया पर उसे अचानक बंद कर दिया गया। कारण था भाजपा अकेले अपने दम पर 300 के पार पहुंच चुकी थी और शायद नीतीश कुमार के लिए यह किसी झटके से कम नहीं था और जब वह मीडिया से बात करने आए तो उनके चेहरे की शिकन इस बात को साफ तौर पर बंया कर रही थी। चुनाव परिणाम से पहले नीतीश को यह लगता था कि भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नहीं पहुंच पाएगी और ऐसी परिस्थिति में उन्हें मोल-भांव करने का अच्छा मौका मिल सकता है। पर ऐसा हुआ नहीं। हालांकि बहुत सारी उम्मीदें और सपने सजाएं नीतीश दिल्ली पहुंचे और अपनी पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के नाम का समर्थन प्रस्ताव पढ़ा। इसके बाद अमित शाह और नीतीश के बीच कई मुलाकतों का दौर चला और तब भी नीतीश को यह लग रहा था कि शायद उनकी पार्टी को कैबिनेट में ज्यादा तरहीज मिल जाएगी पर हुआ ठीक इसके उलट। शपथ ग्रहण वाले दिन भाजपा ने साफ कर दिया कि वह अपने सभी गठबंधन के सहयोगियों को एक-एक मंत्रीपद देगी और यह नीतीश के लिए सबसे बड़ा झटका था। पार्टी नेता आरसीपी सिंह के पास फोन भी जा चुका था और मोदी के साथ चाय पीने के लिए आमंत्रण भी मिल गया। उधर पटना में भी आरसीपी सिंह के आवास पर बधाईयों का दौर शुरू हो गया। सोशल मीडिया पर भी उन्हें बधाई दी जा रही थी। पर नीतीश के मन में कुछ और चल रहा था। अचानक खबर आती है कि जदयू मोदी कैबिनेट में शामिल नहीं होगी और सब कुछ सन्नाटे में तब्दील हो गया।    
 
नीतीश को कम से कम तीन मंत्रीपद की उम्मीद थी और दूसरा यह कि वह रामविलास पासवान से किसी भी सूरत में ज्यादा रहना चाहते थे। खैर दिल्ली से पटना वापस आए और आते ही साफ कर दिया कि वह सांकेतिक भागीदारी में दिलचस्पी नहीं रखते। नीतीश के मन में भी बदले की भावना चलने लगी और उन्होंने अपनी कैबिनेट का विस्तार करते हुए आठ नए मंत्रियों को शामिल किया पर उसमें भाजपा का कोई भी नेता नहीं था। इफ्तार पार्टी ने भी दोनों दलों के बीच की सियासी शीत युद्ध की कहानी को बयां कर दिया। भाजपा और जदयू दोनों ने ही अपनी इफ्तार पार्टी एक दिन ही रखी और दोनों दलों के नेताओं ने एक दूसरे के इफ्तार पार्टी से दूरी बना ली। नीतीश जीतनराम मांझी और पासवान की इफ्तार पार्टी में तो शामिल हुए पर भाजपा से दूरी बना ली। गिरिराज सिंह का ट्वीट भी जदयू को भाजपा पर हमलावर होने का मौका दे दिया। इस बीच भाजपा स्थिति को संभालने में लगी रही। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व भी कई बार नीतीश से बात करने की कोशिश की पर मामला बढ़ता ही चला गया। हालांकि नीतीश को यह भी लगने लगा है कि भाजपा बिहार में अपने बल-बूते चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। सियासी पंडित यह मानते हैं कि अगर बिहार में जदयू और राजद अलग-अलग रहे तो भाजपा को वहां हरा पाना बेहद ही मुश्किल काम है। शादय यही वह डर है जो नीतीश को खाये जा रहा है। भले ही महागठबंधन ने हार के बाद नीतीश के लिए अपने द्वार खोल दिए हो पर नीतीश महागठबंधन में शामिल होते है तो शायद उनकी पलटूराम की छवि को गंभीरता से लिया जाएगा।  
 
नीतीश नए गठबंधन की तलाश में हैं जो शायद गैर भाजपा और गैर राजद रहेगा। नीतीश पासवान, मांझी और कांग्रेस के साथ किसी नए गठबंधन की फिराक में हैं। हालांकि उनकी पार्टी भाजपा को यह कह के लगातार डराने की कोशिश कर रही है कि बिहार में NDA को वोट मोदी के नाम पर नहीं बल्कि नीतीश के काम पर मिला है। उदाहरण के लिए वह दलित, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय से मिले वोटों को पेश कर रही है। उधर भाजपा भी नीतीश के आगामी दांव को भांपने की कोशिश कर रही है और अपने पांव धीरे-धीरे आगे बढ़ा रही है। भाजपा भी बिहार में अपने संगठन को मजबूत करने की कोशिश में जुट गई है। अब यह देखना होगा कि बिहार की राजनीति चुनाव पास आने तक किस करवट लेती है। 
 
-अंकित सिंह
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधानों को रद्द करके जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में बदलाव किये जाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को बुधवार को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया है। साथ ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द करने के राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर केन्द्र और जम्मू-कश्मीर प्रशासन को नोटिस जारी किये हैं। संविधान पीठ अब इस मामले को अक्तूबर में देखेगी। जो लोग आज की अदालती कार्यवाही को मोदी सरकार के लिए झटका मान रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को राहत देने वाली टिप्पणी भी की है। देश के प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि कश्मीर में हालात सामान्य बनाने की कोशिशें हो रही हैं और सबको ये बात समझनी चाहिए। सरकार के लिये यह भी राहत भरा रहा कि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें भले अपने मित्र का हालचाल जानने के लिए कश्मीर जाने की इजाजत दे दी है लेकिन उन्हें वहां किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि करने से रोक दिया है।
 
370 पर जब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई तो क्या-क्या हुआ। आपको यह सिलसिलेवार ढंग से समझाते हैं। दरअसल कुछ लोगों ने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को रद्द करने के राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती दी है जिस पर न्यायालय आज सुनवाई कर रहा था। जम्मू-कश्मीर मामले में चूँकि संविधान में संशोधन हुआ है तो उससे जो नाखुश हैं उनके पास अपील करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा मौजूद था जिसे उन्होंने अपनी याचिकाओं के जरिये खटखटाया है। सुप्रीम कोर्ट का भी दायित्व है कि इन याचिकाकर्ताओं की बात सुने और उस पर सरकार का पक्ष भी जाने। यही हुआ भी। बुधवार को सुनवाई के समय प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की तीन सदस्यीय पीठ केन्द्र सरकार की इस दलील से सहमत नहीं थी कि इस मामले में नोटिस जारी करने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल सरकार की ओर से कहा गया था कि अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल और सालिसीटर जनरल तुषार मेहता न्यायालय में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं इसलिए नोटिस जारी नहीं किया जाये लेकिन न्यायालय ने नोटिस जारी कर दिया। साथ ही न्यायालय की पीठ ने सरकार की इस दलील को भी स्वीकार नहीं किया कि इसके ‘‘सीमा पार नतीजे’’ होंगे। अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि न्यायालय ने जो कुछ भी पूर्व में कहा उसे पहले संयुक्त राष्ट्र भेजा गया था। इस मुद्दे पर दोनों ही पक्षों के वकीलों में बहस के बीच ही पीठ ने कहा, ‘‘हमें पता है कि क्या करना है, हमने आदेश पारित कर दिया है। हम इसे बदलने नहीं जा रहे।’’ पीठ ने कहा, ‘‘हम इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपेंगे।’’ पीठ ने यह भी कहा कि सारे मामले अक्टूबर के पहले सप्ताह में संविधान पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किये जायेंगे।
 
अब सवाल यह उठता है कि क्या आज के सुप्रीम कोर्ट के रुख के बाद जम्मू-कश्मीर के संबंध में लिये गये मोदी सरकार के फैसले पर कोई असर पड़ेगा? तो इसका जवाब है- नहीं कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पांच जजों की संविधान पीठ सभी याचिकाओं पर अक्टूबर के पहले हफ्ते में सुनवाई शुरू करेगी। यह सुनवाई कब तक चलेगी, इस पर भी पांच जजों की संविधान पीठ ही फैसला करेगी। इसलिए यह कहना जल्दबाजी होगा कि अनुच्छेद 370 पर सुप्रीम कोर्ट से कोई बड़ा फैसला आने वाला है। साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सरकार पूरी मजबूती और तर्कों के साथ इस मामले का न्यायालय में सामना करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जिस तरह हौसला दिखाते हुए यह बड़ा राजनीतिक फैसला किया और इस मुद्दे पर लगातार वैश्विक समर्थन भारत के पक्ष में जुटाया जा रहा है, उससे ऐसा लगता नहीं कि सरकार इस मामले में कहीं कमजोर साबित होगी। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि गृहमंत्री अमित शाह ने अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधान हटाने संबंधी संकल्प जब राज्यसभा में पेश किया था तो पहले यही कहा था कि हमें उम्मीद है कि कुछ लोग इसके बाद न्यायालय जाएंगे इसलिए हम पूरी तैयारी के साथ आये हैं। जाहिर है सरकार के कानूनी सलाहकारों ने संकल्प पेश होने से पहले उसके समक्ष आने वाली कानूनी चुनौतियों के बारे में जरूर देखा होगा।
 
जहाँ तक कश्मीर को लेकर सरकार की ओर से उठाये गये कदमों की बात है तो राज्य विकास के पथ पर कैसे तेजी से आगे बढ़े, शांति स्थापित हो, लोगों का विश्वास जीता जा सके इसके लिए कई बड़ी योजनाओं का ऐलान किया गया है। इसके साथ ही मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित मुद्दों को देखने के लिए एक मंत्री समूह (जीओएम) का गठन किया है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री जितेंद्र सिंह इस समूह में शामिल हैं। यह मंत्री समूह दोनों केंद्रशासित प्रदेशों में उठाए जाने वाले विभिन्न विकास, आर्थिक और सामाजिक कदमों के बारे में सुझाव देगा। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्रशासित प्रदेशों के रूप में 31 अक्टूबर को अस्तित्व में आ जाएंगे। अब अक्तूबर के शुरू में संविधान पीठ कश्मीर संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई पूरी होने तक कश्मीर की पुरानी स्थिति बहाल करता है या वहाँ के बारे में लिये गये मोदी सरकार के फैसलों पर स्टे लगाता है या फिर वर्तमान परिस्थितियों में ही सुनवाई शुरू होगी, इस पर अब सभी की नजरें टिक गयी हैं।
अरूण जेटली से मेरा पहला परिचय श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में 1971 में हुआ। जब मैंने फर्स्ट ईयर में दाखिला लिया, तब अरूण जेटली सैकेंड ईयर में थे। गोरे−चिट्टे, स्मार्ट, चश्मा लगाए हुए अरूण जेटली मुझे आकर्षक स्वभाव के मालूम हुए। उनके बाल थोड़े बढ़े हुए थे और उन दिनों बड़ी बेलबौटम पहनने का रिवाज था। हम दोनों के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् में होने के कारण जल्द ही हमारे संबंध ऐसे बन गए कि आज तक हम साथ−साथ काम करते रहे।
  
1973 में सैकेंड ईयर में मैं कॉलेज यूनियन के ज्वाइंट सैक्रेटरी के लिए चुनाव लड़ा और अरूण जेटली कॉलेज प्रेजीडेंट के लिए चुनाव लड़े। ऐसा नहीं था कि ये कोई विद्यार्थी परिषद का पैनल था। हम स्वाभाविक रूप से चुनाव में खड़े हुए थे और हम दोनों एक ही छात्र संघ का चुनाव जीत गए। वो प्रेजीडेंट बने और मैं ज्वाइंट सेक्रेटरी। मुझे याद है हमने तब मॉडल टाउन के एक रेस्टोरेंट में बैठकर कॉलेज यूनियन का बजट बनाया था और तब उसको बड़ी गंभीरता से लिया था कि ये बजट लीक नहीं होना चाहिए। आज यह सोचकर हंसी आती है। हमने यूनियन में इकट्ठा काम करना शुरू किया।
 
45 साल पहले कॉलेज के छात्र संघ से जो हमने इकट्ठा काम करना शुरू किया था, वो अब 2019 में राज्य सभा में इकट्ठे काम करने के साथ समाप्त हुआ। वे राज्य सभा में सदन के नेता व मंत्री थे और मैं सदन में पार्लियामेंट्री अफेयर्स मिनिस्टर के रूप में राज्य सभा देखता था।
 
अरूण के बारे में यह कहा जाता है कि वो पहले स्वतंत्र विचारधारा के थे। पर विद्यार्थी परिषद् में आने के बाद वे पूर्णतया संगठन को समर्पित हो गए। हम दोनों अलग−अलग कॉलेजों में इंटर कॉलेज डिबेट के लिए भी जाते थे। उन दिनों 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एक बड़ा आन्दोलन हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष श्रीराम खन्ना हमारी अगुवाई कर रहे थे। हम लोग भी उस आन्दोलन में बहुत सक्रिय थे। अकसर विद्यार्थी परिषद् व छात्र संघों और छात्र नेताओं की बैठकें मेरे घर पर हुआ करती थीं, क्योंकि मेरा घर कैम्पस के बहुत पास था। अरूण जेटली भी अकसर मेरे घर आते थे। खुद वे नारायणा विहार के एक मंजिला मकान में रहते थे। वे बस से कॉलेज आया−जाया करते थे। मैंने उनको कभी गाड़ी या स्कूटर चलाते नहीं देखा, शायद उनको चलाना आता भी नहीं था। कभी−कभी वो मेरे टू व्हिलर स्कूटर पर पीछे बैठकर कैम्पस की राजनीति करते थे। उनके और मेरे पिता दोनों वकील थे और दोनों के दफ्तर चांदनी चौक में थे।
 
1974 में अरूण जेटली दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने और हम लोग जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में कूद गए। जयप्रकाश जी हमारे दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के दफ्तर में भी आए और मुझे याद है उन्होंने देश भर से आए छात्र नेताओं को संबोधित भी किया। इस आन्दोलन के चलते−चलते आकस्मिक एक दिन 25 जून, 1975 को आपातकाल घोषित हो गया। रात को मेरे पिता चरती लाल गोयल अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर लिए गए।
अगले दिन सुबह अरूण का फोन आया कि कैम्पस में लड़कों को इकट्ठा करो आपातकाल के खिलाफ जुलूस निकालना है। उस समय हमें इमरजेंसी का मतलब भी नहीं पता था कि इसका स्वरूप कितना भयानक होगा। मैंने सोचा पिताजी को पकड़ लिया गया है, कुछ दिनों में छूट जाएंगे, जैसा पहले नेताओं के साथ होता रहा है और हम कैम्पस में जुलूस निकालने चले गए। ये पूरे देश में इमरजेंसी के खिलाफ पहला प्रदर्शन था। हमारे साथ रजत शर्मा (इंडिया टीवी) भी थे। 200−300 लड़कों का जुलूस निकाल कर हमने कांग्रेस, इंदिरा गांधी और आपातकाल के खिलाफ खूब नारेबाजी की। जुलूस खत्म होने के बाद अरूण जेटली कॉफी हाउस चले गए। मैं और रजत अपने कॉलेज चले गए। शाम तक खबर मिली कि अरूण जेटली गिरफ्तार कर लिए गए हैं। अब हम लोग तो अंडरग्राउंड हो गए। बाद में मैं और रजत दोनों सत्याग्रह करके जेल गए। अरूण जेटली स्टूडेंट्स में हीरो हो गए थे। शुरू में वे अम्बाला जेल गए, जहां मेरे पिता समेत कई नेता बंद थे और बाद में वे अगले 19 महीने खत्म होने तक तिहाड़ जेल में रहे और आपातकाल खत्म होने पर ही छूटे।
 
जब तक हम भूमिगत आन्दोलन में सक्रिय रहे, तब तक अरूण के साथ जेल से हमारा पत्र−व्यवहार होता रहा। जेल में भी उनका मनोबल नहीं टूटा और वे हमको वहीं से चिटि्ठयां लिखते रहे, जो आज भी मेरे पास मौजूद हैं। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में उनकी राइटिंग भले अच्छी न हो, पर दोनों भाषाओं में बोलने में उनकी पकड़ बहुत मजबूत थी।
 
कॉलेज के दिनों से मेरा और अरूण जेटली का चोली−दामन का साथ रहा। बीच−बीच में हमारे मतभेद भी होते थे। यह ईश्वरीय था कि वो दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन के प्रेजीडेंट बने, उसके बाद मैं बना। दोनों ने कैम्पस लॉ फेकल्टी से कानून की पढ़ाई की और वहीं से यूनिवर्सिटी के प्रेजीडेंट बने। हम दोनों ही तिहाड़ जेल में रहे। पहले वे भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रेजीडेंट थे, उनके बाद मैं बना। वो बीजेपी ऑल इंडिया के महासचिव रहे, बाद में मैं उनके साथ बना। लॉ के बाद राजनीति में रहते−रहते वो वकालत करने लग गए और मैं कागज के व्यापार में चला गया। संयोग से मुझे सांसद होने का मौका पहले मिला, वे भी सांसद बने इसके बाद हम दोनों वाजपेयी सरकार में साथ−साथ मंत्री रहे। वे सूचना एवं प्रसारण व कानून मंत्री बने और मैं उनके बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री बन गया। लॉटरी बंद करवाने की मुहिम में भी उन्होंने मेरा साथ दिया था।
 
अरूण का दिल्ली में एक बार लोक सभा चुनाव लड़ने का मन भी बन गया था, पर सबकी सहमति न बनने के कारण वे चुनाव न लड़कर, लड़वाने वाली टीम में एक बार जो शामिल हुए, तो फिर वे चुनाव अभियानों में जुटे रहे। उनको लक्की मस्कोट माना गया, जिस भी राज्य के चुनाव प्रभारी बने, वहां पार्टी चुनाव अवश्य जीती। लोक सभा में न जाने का उनको मलाल जरूर रहा। उनको दुख था कि अमृतसर में भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया।
अटल जी और आडवाणी जी ने हमारे साथ बहुत−से युवाओं को आगे बढ़ाया। अरूण जेटली के साथ−साथ उस समय प्रमोद महाजन, अनंत कुमार, सुषमा स्वराज, वैंकेया नायडू जैसों की बहुत अच्छी टीम थी। अरूण उन नेताओं में रहें, जिनकी समान रूप से सब क्षेत्रों में पकड़ थी। चाहे वो दूसरी पार्टी के नेता हों या फिर मीडिया ग्रुप के संपादकों से रिपोर्टरों तक। बड़े−बड़े उद्योगपतियों से लेकर वे छोटे से छोटे कार्यकर्त्ता से भी जुड़े हुए थे। उनकी खासियतों को अगर गिनाऊं तो वे आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों पर उनकी समान रूप से पकड़ थी। संसद और संसद के बाहर बहुत अच्छे वक्ता रहे। ज्ञान के वे भंडार थे, किसी भी विषय पर कभी भी वे बोल सकते थे। जानकारियां उनके पास हमेशा रहती थीं।
 
अटल और मोदी सरकारों में उनको संकटमोचक माना जाता रहा। अकसर वे सेल्फ इनीशिएटिव लेकर अपने से बड़े नेताओं को सलाह दिया करते थे। जहां तक मुझे ध्यान आता है, देश भर के सभी सांसदों और विधायकों से उनका परिचय था। शाम के समय वे कार्यक्रमों में भाग लेते थे और वहां गप−शप करना उनका शौक था। मेरे घर पर अकसर होने वाले कार्यक्रमों में वे आते और सबसे मिला करते थे। खाने के शौकीन थे, इसलिए उन्होंने कभी अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया। मेरे यहां आते थे तो कहते थे, परांठे जरूर बनवाना। उन्हें अमृतसरी छोले−भटूरे बहुत पसंद थे।
 
हम लोगों ने पतंग उड़ाने से लेकर लगभग खेलना, बैठना, पढ़ना, राजनीति करना सारे काम एक साथ किए। अकसर वो अपने जन्मदिन पर पॉलिटिकल आदमी को पार्टी में नहीं बुलाते थे। किन्तु मुझे कहते थे, तुम तो मेरे दोस्त हो, इसलिए तुम जरूर आना। हमारी मित्र मंडली में बहुत−से साझा मित्र हैं। अरूण जेटली के लेख और ब्लॉग बड़े प्रसिद्ध रहे। पार्टी के हर दिए हुए काम को वो पूरा करते थे। अपनी बात को वो बेबाक रूप से रखते, किन्तु उसके बाद जो पार्टी तय करती थी, उस पर चलते। जिन लोगों के साथ उनकी नहीं जम पाई, उसकी उन्होंने कभी चिन्ता भी नहीं की।
 
उस दिन मैं बहुत भावुक हो गया, जब उन्होंने मुझसे कहा कि भगवान ने मुझे सब कुछ दिया, स्वास्थ्य नहीं दिया। वित्त मंत्री बनने से पहले वो लोदी गार्डन में सैर करने जाते थे। बाद में उन्होंने घर पर ही सैर करनी शुरू की। अकसर वो रंजन भट्टाचार्य और कभी−कभी मुझे भी सैर करने के लिए बुला लिया करते थे। अपने परिवार वालों से उनका बहुत लगाव रहा। वे अकसर मुझे बताते थे कि किस आदमी की उन्होंने कैसे−कैसे मदद की। खास तौर से किसी बड़े या छोटे नेता का स्वास्थ्य खराब हो जाए तो वो अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके एम्स से लेकर मेदांता तक उसका इलाज करवाते थे।
 
जेटली परिवार की कुलदेवी बगलामुखी माता का मंदिर हमारी हवेली धर्मपुरा के पास नाईवाड़ा में है, जहां उनके परिवार वाले अक्सर पूजा करने के लिए जाते हैं। यूं मैंने उनको बाकी कभी ज्यादा धार्मिक स्थलों पर जाते नहीं देखा। उनको क्रिकेट का बहुत शौक रहा। वो डीडीसीए के प्रेजीडेंट बने। अकसर क्रिकेट मैच स्टेडियम या टीवी में बड़े चाव से देखते थे और क्रिकेट के आंकड़े उनकी अंगुलियों पर होते थे। अरूण जेटली कभी विवादों में भी रहे, पर कभी उन्होंने हार नहीं मानी। जब केजरीवाल ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए तो उन्होंने देश का वित्त मंत्री होते हुए कोर्ट में खड़े होकर उसका सामना किया और अंत में केजरीवाल को माफी मांगनी पड़ी। चाहे राजनीति हो या घर−परिवार की बात हो वो खुल कर मेरे से बात किया करते थे।
  
अरूण जेटली एक प्रसिद्ध वकील, एक ईमानदार नेता, एक बुद्धिमान व्यक्तित्व, एक प्रभावी वक्ता, एक कुशल रणनीतिकार और एक अच्छे मंत्री के रूप में जाने जाएंगे। राजनीति उनकी अपनी पसन्द थी, पर उन्होंने राज भी किया और नीतियां भी बनाईं। मुझे नहीं याद आता कि इतने सारे क्षेत्रों में इतना लम्बा 45 वर्षों का साथ मेरा किसी और के साथ रहा हो, जिसमें इतने सारे खट्ठे−मीठे अनुभव हों।
 
-विजय गोयल
(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)

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